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________________ 'धर्मोपदेश उवएसपय ( उपदेशपद): १०३९ आर्याछन्द में जैन महाराष्ट्री में लिखित इस ग्रन्थ' के रचयिता हरिभद्रसूरि हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ में उत्तराध्ययन को नियुक्ति, नन्दी, सन्मतिप्रकरण आदि की कई गाथाएं मूल में ही गूंथ ली हैं। इस कृति में मानवभव की दुर्लभतासूचक दस दृष्टान्त, जैन आगमों का अध्ययन, चार प्रकार की बुद्धि, धार्मिक बोध देने की और ग्रहण करने की पद्धति, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ एवं ऐदम्पर्यार्थ की स्पष्टता इत्यादि विषयों पर विचार किया गया है। टोकाएँ–उवएसपय के ऊपर किसी ने गहन वृत्ति रची थी ऐसा इस कृति की मुनिचन्द्रसूरिरचित ( वि० सं० ११७४ ) सुखसम्बोधनी नाम की विवृति के प्रारम्भिक भाग ( श्लोक ३ ) से ज्ञात होता है। इस महाकाय विवृति के रचयिता को उनके शिष्य रामचन्द्रगणी ने सहायता की थी। इस विवृति में कई कथानक जैन महाराष्ट्री में हैं । वि० सं० १०५५ में श्री वर्धमानसूरि ने इसपर एक टीका लिखी है । इसकी प्रशस्ति पाविलगणी ने रची है। इस समग्र टीका का प्रथमादर्श आर्यदेव ने तैयार किया था। 'वन्दे देवनरेन्द' से शुरू होनेवाली इस टीका का परिमाण ६४१३ श्लोक है । मूल पर एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है। उपदेशप्रकरण : १००० श्लोक-परिमाण की यह पद्यात्मक कृति अज्ञातकर्तृक है। इसमें धर्म, पूजा, दान, दया, सज्जन, वैराग्य और सूक्त जैसे विविध अधिकारों को स्थान दिया गया है। १. यह मुनिचन्द्रसूरि की सुखसम्बोधनी नाम की विवृति के साथ 'मुक्ति-कमल जैन-मोहनमाला' में दो विभागों में अनुक्रम से सन् १९२३ और सन् १९२५ में प्रकाशित हुआ है। २. धर्मोपदेशमाला-विवरण के प्रास्ताविक (पृ० १४ ) में जिनविजयजी ने उवएसपय को धर्मदासगणीकृत उवएसमाला की अनुकृतिरूप माना है । ३. मूल कृति के साथ इसका श्लोक-परिमाण १४,५०० है । ४. इसके परिचय के लिए देखिए-Descriptive Catalogue of Govt. Collections of Mss. Vol. XVIII, pp. 331-2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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