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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १. प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई फल अवश्य होता है। दूसरे शब्दों में कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती। इस सिद्धान्त को कार्य-कारणभाव अथवा कर्म-फलभाव कहते हैं। २. यदि किसी क्रिया का फल प्राणी के वर्तमान जीवन में प्राप्त नहीं होता तो उसके लिए भविष्यकालीन जीवन अनिवार्य है। ३. कर्म का कर्ता एवं भोक्ता स्वतन्त्र आत्मतत्त्व निरन्तर एक भव से दूसरे भव में गमन करता रहता है। किसी न किसी भव के माध्यम से ही वह एक निश्चित कालमर्यादा में रहता हुआ अपने पूर्वकृत कर्मों का भोग तथा नवीन कर्मों का बन्धन करता है । कर्मों की इस परम्परा को तोड़ना भी उसकी शक्ति के बाहर नहीं है। . ४. जन्मजात व्यक्तिभेद कर्मजन्य हैं । व्यक्ति के व्यवहार तथा सुख-दुःख में जो असामञ्जस्य अथवा असमानता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मजन्य ही है।। ५. कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है। तदतिरिक्त जितने भी हेतु दृष्टिगोचर होते हैं वे सब सहकारी अथवा निमित्तभूत हैं। कर्मवाद और इच्छा-स्वातन्त्र्य : प्राणी अनादिकाल से कर्मपरम्परा में उलझा हुआ है। पुराने कर्मों का भोग एवं नये कर्मों का बन्धन अनादि काल से चला आ रहा है। प्राणी अपने कृतकर्मों को भोगता जाता है तथा नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है। इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणी सर्वथा कर्माधीन है अर्थात् वह कर्मबन्धन को नहीं रोक सकता । यदि प्राणी का प्रत्येक कार्य कर्माधीन ही माना जाएगा तो वह अपनी आत्मशक्ति का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग कैसे कर सकेगा। दूसरे शब्दों में प्राणी को सर्वथा कर्माधीन मानने पर इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता। प्रत्येक क्रिया को कर्ममूलक मानने पर प्राणी का न अपने पर कोई अधिकार रह जाता है, न दूसरों पर । ऐसी दशा में उसको समस्त क्रियाएँ स्वचालित यन्त्र की भाँति स्वतः संचालित होती रहेंगी। प्राणी के पुराने कर्म स्वतः अपना फल देते रहेंगे एवं उसको तत्कालीन निश्चित कर्माधीन परिस्थिति के अनुसार नये कर्म बँधते रहेंगे जो समयानुसार भविष्य में अपना फल प्रदान करते हुए कर्मपरम्परा को स्वचालित यन्त्र की भाँति बराबर आगे बढ़ाते रहेंगे । परिणामतः कर्मवाद नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद' में परिणत १. Determinism or Necessitarianism. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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