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कर्मवाद
हो जाएगा तथा इच्छा-स्वातन्त्र्य अथवा स्वतन्त्रतावाद' का प्राणी के जीवन में कोई स्थान न रहेगा ।
कर्मवाद को नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद नहीं कह सकते । कर्मवाद का यह तात्पर्य नहीं कि इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं । कर्मवाद यह नहीं मानता कि प्राणी जिस प्रकार कर्म का फल भोगने में परतन्त्र है उसी प्रकार कर्म का उपार्जन करने में भी परतन्त्र है । कर्मवाद की मान्यता के अनुसार प्राणी को अपने किये हुए कर्म का फल किसी न किसी रूप में अवश्य भोगना पड़ता है किन्तु नवीन कर्म का उपार्जन करने में वह किसी सीमा तक स्वतन्त्र है । कृतकर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती, यह सत्य है किन्तु यह अनिवार्य नहीं कि प्राणी अमुक समय में अमुक कर्म ही उपार्जित करे। आन्तरिक शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति को दृष्टि में रखते हुए प्राणी नये कर्मों का उपार्जन रोक सकता है । इतना ही नहीं, वह अमुक सीमा तक पूर्वकृत कर्मों को शीघ्र या देर से भी भोग सकता है अथवा उनमें पारस्परिक परिवर्तन भी हो सकता है । इस प्रकार कर्मवाद में सीमित इच्छा - स्वातन्त्र्य का स्थान अवश्य है, यह मानना पड़ता है । इच्छा स्वातन्त्र्य का अर्थ कोई यह करे कि 'जो जाहे सो करे' तो कर्मवाद में वैसे स्वातन्त्र्य का कोई स्थान नहीं है प्राणी अपनी शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सकता । जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है। इतना होते हुए भी वह कर्म करने में सर्वथा परतन्त्र नहीं अपितु किसी हद तक स्वतन्त्र है । कर्मवाद में यही इच्छा स्वातन्त्र्य है । इस प्रकार कर्मवाद नियतिवाद और स्वतन्त्रतावाद के बीच का सिद्धान्त हैमध्यमवाद है |
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कर्मविरोधी मान्यताएँ :
कर्मवाद को अपने विरोधी अनेक वादों का सामना करना पड़ता है । विश्ववैचित्र्य के कारणों को गवेषणा करते हुए कुछ विचारक इस तथ्य की स्थापना करते हैं कि काल ही संसार की उत्पत्ति आदि का कारण है । कुछ विचारक स्वभाव को ही विश्व का कारण मानते हैं । कुछ विचारकों के मत से नियति ही सब कुछ है । कुछ विचारक यदृच्छा को ही जगत् का कारण मानते हैं । कुछ विचारक ऐसे भी हैं जो पृथ्वी आदि भूतों को हो संसार का कारण मानते हैं ।
१. Freedom of Will or Libertarianism.
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