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प्रथम प्रकरण
कर्मवाद
भारतीय तत्त्वचिन्तन में कर्मवाद का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है । चार्वाकों के अतिरिक्त भारत के सभी श्रेणियों के विचारक कर्मवाद के प्रभाव से प्रभावित रहे हैं। भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान आदि पर कर्मवाद का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। सुख-दुःख एवं सांसारिक वैविध्य का कारण ढूंढ़ते हुए भारतीय विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त का अन्वेषण किया है। भारत के जनसाधारण की यह सामान्य धारणा रही है कि प्राणियों को प्राप्त होने वाला सुख अथवा दुःख स्वकृत कर्मफल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जीव अनादि काल से कर्मवश हो विविध भवों में भ्रमण कर रहा है। जन्म एवं मृत्यु की जड़ कर्म है। जन्म और मरण ही सबसे बड़ा दुःख है। जीव अपने शुभ और अशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है । जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे' का तात्पर्यार्थ यही है। एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता । प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसम्बद्ध होता है, परसम्बद्ध नहीं। कर्मवाद की स्थापना में यद्यपि भारत की सभी दार्शनिक एवं नैतिक शाखाओं ने अपना योगदान दिया है फिर भी जैन परम्परा में इसका जो सुविकसित रूप दृष्टिगोचर होता है वह अन्यत्र अनुपलब्ध है। जैन आचार्यों ने जिस ढंग से कर्मवाद का सुव्यवस्थित, सुसम्बद्ध एवं सर्वांगपूर्ण निरूपण किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं, अप्राप्य है । कर्मवाद जैन विचारधारा एवं आचारपरम्परा का एक अविच्छेद्य अंग हो गया है। जैन दर्शन एवं जैन आचार की समस्त महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ व धारणाएं कर्मवाद पर अवलम्बित हैं।'
कर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त ये हैं :
१. कर्मवाद का मूल सम्भवतः जैन-परम्परा में है। कर्मवाद की उत्पत्ति के
ऐतिहासिक विवेचन के लिए देखिए-पं० दलसुख मालवणिया : आत्ममीमांसा, पृ० ७९-८६.
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