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तृतीय प्रकरण
धर्मोपदेश
उवएसमाला ( उपदेशमाला ):
५४२ आर्याछन्द में रचित इस कृति के प्रणेता धर्मदासगणी हैं। इनके विषय में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि ये स्वयं महावीरस्वामी के हस्तदीक्षित शिष्य थे, परन्तु यह मान्यता विचारणीय है, क्योंकि इस ग्रन्थ में सत्तर के लगभग जिन कथाओं का सूचन है उनमें वज्रस्वामी का भी उल्लेख है। इसकी भाषा भी आचारांग आदि जितनी प्राचीन नहीं है।
आचारशास्त्र की प्रवेशिका का श्रीगणेश इस कृति से होता है और इस दिशा में मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने सबल प्रयत्न किया है ऐसा उनकी 'उवएसमाला' देखने से ज्ञात होता है। प्रस्तुत कृति में निम्नलिखित विषयों का रसप्रद एवं सदृष्टान्त निरूपण है :
गुरु का महत्त्व, आचार्य के गुण, विनय, पुरुषप्रधान धर्म, क्षमा, अज्ञानतपश्चर्या का मूल्य, प्रव्रज्या का प्रभाव, सहनशीलता, पाँच आस्रवों का त्याग, शील का पालन, सम्यक्त्व, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन, चार कषायों पर विजय, सच्चा श्रामण्य, संयम, अप्रमाद, अपरिग्रह और दया ।
इस प्रकार इस कृति में जीवन-शोधन और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अत्यन्त मूल्यवान सामग्री भरी हुई है।
१. लगभग ३ गाथाएँ प्रक्षिप्त है। २. यह अनेक स्थानों से प्रकाशित हुई है। बम्बई से सन् १९२६ में 'श्री
श्रुतज्ञान अमीधारा' के पृ० १२२-१५० में छपी है। इसके अलावा जामनगर से हीरालाल हंसराज ने सन् १९३४ में रामविजयगणीकृत वृत्ति के साथ तथा सन् १९३९ में सिद्धर्षि की टीका के साथ यह प्रकाशित की
है। रामविजयगणीकृत टीका का गुजराती अनुवाद भी छपा है । ३. देखिए-अन्तिम भाग ।
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