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________________ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास टीकाएँ - हेमप्रभ ने वि० सं० १२२३ या मतान्तर के अनुसार १२७३ में २१३४ श्लोक - परिमाण की एक वृत्ति लिखी है । इसका आरम्भ 'चन्द्रादित्यमहौषधी' से होता है । ये धर्मघोष के शिष्य यशोघोष के शिष्य थे । इसके अतिरिक्त उपलब्ध होनेवाली अन्य दो वृत्तियों में से एक वृत्ति मुनिभद्र ने लिखी है और अज्ञातकर्ता के दूसरी ८५८० श्लोक - परिमाण की है ।" संघतिलक के शिष्य देवेन्द्र ने वि० सं० १४२९ में ७३२६ श्लोक - परिमाण की एक टीका लिखी है । इसमें प्रत्येक प्रश्न के ऊपर एक-एक कथा दी गई है । २ १९२ सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय : यह पार्श्वदेवगणी अपर नाम श्रीचन्द्रसूरि की कृति है । ये शीलभद्रसूरि के शिष्य थे । श्रीचन्द्रसूरि ने न्यायप्रवेशकव्याख्या पर पंजिका और वि० सं० १२२८ में निरयावली सुखंघ पर वृत्ति लिखी है । प्रस्तुत कृति २२६४ श्लोक -प्रमाण है और विविध आगमों की व्याख्याओं में आनेवाले दुर्बोध स्थानों पर प्रकाश डालती है । इसी नाम की अन्य कृतियाँ भी उपलब्ध होती हैं । खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के शिष्य जिनभद्रसूरि ने भी 'सर्वसिद्धान्तविषमपदपर्याय' नामक ग्रन्थ लिखा है । इसे 'समस्तसिद्धान्तविषमपदपर्याय' भी कहते हैं । इन जिनभद्रसूरि ने जयसागर की सन्देहदोलावली के संशोधन में वि० सं० १४९५ में सहायता की थी । १. इस अज्ञातकतृक वृत्ति की वि० सं० १४४९ की एक हस्तलिखित प्रति मिलती है । २. प्रस्तुत कृति का फ्रेंच भाषा में अनुवाद हुआ है और वह छपा भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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