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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
लोगों का विपरीत बर्ताव, असंयत की पूजा, चाहिल द्वारा प्रदर्शित मार्ग, एकता के लिए प्रमार्जनी का दृष्टान्त, श्लेषपूर्वक ग्रह और नक्षत्र के दृष्टान्त द्वारा औचित्य से युक्त मनुष्य को धन की प्राप्ति, लोहचुम्बक से युक्त और उससे रहित जहाज के दृष्टान्त द्वारा लोभ के त्याग से होनेवाले लाभ का वर्णन इत्यादि विषय इस कृति में आते हैं। ____टोका-इसके रचयिता उपाध्याय सूरप्रभ हैं। ये जिनपतिसूरि के शिष्य और जिनपाल, पूर्णभद्रगणी, जिनेश्वरसूरि तथा सुमतिगणी के सतीर्थ्य थे। इन्होंने उपाध्याय चन्द्रतिलक को विद्यानन्द-व्याकरण पढ़ाया था और दिगम्बर वादी यमदण्ड को स्तम्भतीर्थनगर में हराया था। इन्होंने २८ वें पद्य की व्याख्या में लिखा है कि ग्रह भी धीरे-धीरे नक्षत्रों पर आरोहण करते हैं, अतः धन न मिलने पर आकुल-व्याकुल होना उचित नहीं। आगमियवत्थुवियारसार ( आगमिकवस्तुविचारसार ):
यह जैन महाराष्ट्री में ८६ पद्यों की रचना है । इससे इसे 'छासीई' (षडशीति) भी कहते हैं। यह प्राचीन कर्मग्रन्थों में से एक माना जाता है । इसमें जीवमार्गणा, गुणस्थान, उपयोग, योग और लेश्या का निरूपण है : इसके रचयिता खरतरगच्छ के जिनवल्लभसूरि हैं। इनका स्वर्गवास वि० सं० ११६७ में हुआ था।
टीकाएं-इसपर अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं : १. जिनवल्लभगणीकृत टीका ।
२. वुत्ति ( वृत्ति )-८०५ श्लोक-परिणाम की जैन महाराष्ट्री में लिखी गई यह वृत्ति कर्ता के शिष्य रामदेवगणी ने वि० सं० ११७३ में लिखी है। इसकी कागज पर लिखी गई एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १२४६ की मिलती है। इससे प्राचीन कोई जैन हस्तलिखित कागज की प्रति देखने-सुनने में नहीं आई।
१. मलयगिरि की वृत्ति तथा बृहद्गच्छीय हरिभद्रसृरि की विवृति के साथ वि०
सं० १९७२ में यह जैन आत्मानन्द सभा ने प्रकाशित किया है। २. एक हस्तलिखित प्रति में ९४ पद्य हैं। इसके लिए देखिए-भाण्डारकर
प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर से प्रकाशित मेरा Descriptive Catalogue of the Government Collection of Manuscripts, Vol. XVIII, Part 1, No. 129.
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