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आगमसार और द्रव्यानुयोग
१८९ पास दीक्षा ली थी और वि० सं० ११६९ में सूरिपद प्राप्त किया था। इनका स्वर्गवास १२११ में हुआ था।
चैत्यविधि पर प्रकाश डालनेवाली यह चर्चरी नृत्य करनेवाले 'प्रथम मंजरी' भाषा में' गाते हैं ऐसा उपाध्याय जिनपाल ने इसकी व्याख्या में लिखा है। इस प्रकार इस नृत्य-गीतात्मक कृति के द्वारा कर्ता ने अपने गुरु जिनवल्लभसूरि की स्तुति की है। इसमें उनकी विद्वत्ता का तथा उनके द्वारा सूचित विधिमार्ग का वर्णन है। विधिचैत्यगृह की विधि, उत्सूत्र भाषण का निषेध इत्यादि बातों को भी यहाँ स्थान दिया गया है। ___ गणहरसद्धसयग ( गणधरसार्धशतक ) की सुमतिगणीकृत बृहद्वृत्ति में इस चर्चरी के १६, १८ और २१ से २५ पद्य उद्धृत किये गये हैं।
टोका-चर्चरी पर उपाध्याय जिनपाल ने संस्कृत में वि० सं० १२९४ में एक व्याख्या लिखी है। ये जिनपतिसूरि के शिष्य थे। इन्होंने चर्चरी की बारहवीं गाथा की व्याख्या में उवएसरसायण ( उपदेशरसायन ) पर वि० सं० १२९२ में अपने लिखे हुए विवरण का उल्लेख किया है । वीसिया ( विशिका ):
यह उपर्युक्त जिनदत्तसूरि को जैन महाराष्ट्री में रचित कृति है। इस नाम से तो इस कृति का उल्लेख जिनरत्नकोश में नहीं है। प्रस्तुत कृति में बीस पद्य होंगे। कालसरूवकुलय ( कालस्वरूपकुलक):
___ इसके कर्ता जिनदत्तसूरि हैं । अपभ्रंश में तथा 'पद्धटिका' छन्द में विरचित इस कृति में विविध दृष्टान्त दिये गये हैं। इसमें उन्होंने अपने समय का विषम स्वरूप दिखलाया है। मीन राशि में शनि की संक्रान्ति होकर मेष राशि में वह जाय और वक्री बने तो देशों का नाश, परचक्र का प्रवेश और बड़े-बड़े नगरों का विनाश होता है। गाय और आक के दूध के दृष्टान्त द्वारा सुगुरु और कुगुरु का भेद, कुगुरु की धतूरे के फूल के साथ तुलना, श्रद्धाहीन १. अपभ्रंशकाव्यत्रयी की प्रस्तावना ( पृ० ११४ ) में इसका ‘पढ( ट )मंजरी' __ के रूप में उल्लेख है। वहाँ पटमंजरी राग के विषय में थोड़ी जानकारी
दी गई है। २. यह कृति उपाध्याय सूरपालरचित व्याख्या के साथ 'अपभ्रशकाव्यत्रयी' के
पृ० ६७-८० में छपी है।
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