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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास . विंशतिस्थानकविचारामृतसंग्रह :
वि० सं० १५०२ में रचित २८०० श्लोक-परिमाण की इस कृति के रचयिता तपागच्छ के जयचन्द्रसूरि के शिष्य जिनहर्ष हैं। इन्होंने इसके आरम्भ में धर्म के दान आदि चार प्रकारों का तथा दान एवं शील के उपप्रकारों का निर्देश करके विंशतिस्थानक-तप को अप्रतिम कहा है। इसके पश्चात् निम्नांकित बीस स्थानक गिनाये हैं :
१. अरिहन्त, २. सिद्ध, ३. प्रवचन, ४-७. गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी का वात्सल्य, ८. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, ९. दर्शन ( सम्यक्त्व ), १०. विनय, ११. आवश्यक का अतिचाररहित पालन, १२. शीलवत, १३. क्षणलव ( शुभध्यान ), १४. तप, १५. त्याग, १६. वैयावृत्य, १७. समाधि, १८. अपूर्वज्ञानग्रहण, १९. श्रुतभक्ति, २०. प्रवचन को प्रभावना !
इसमें इन बीस स्थानों की जानकारी दी गई है और साथ ही इनसे सम्बद्ध कथाएँ भी पद्य में दी हैं । अन्त में बाईस पद्यों की प्रशस्ति है । सिद्धान्तोद्धार :
चक्रेश्वरसूरि ने २१३ गाथाओं में सिद्धान्तोद्धार लिखा है। इसे सिद्धान्तसारोद्धार भी कहते हैं। यह प्रकरणसमुच्चय में छपा है। इसके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक सिद्धान्तसारोद्धार भी है । चच्चरी ( चर्चरी):
इस अपभ्रंश कृति में ४७ पद्य हैं । इसकी रचना खरतरगच्छ के जिनदत्तसूरि ने वाग्जड ( वागड ) देश के व्याघ्रपुर नामक नगर में की है। इनका जन्म वि० सं० ११३२ में हुआ था। इन्होंने वि० सं० ११४१ में उपाध्याय धर्मदेव के
१. यह देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९२२ में प्रकाशित
किया है। २. इस नाम की एक कृति विमलसूरि के शिष्य चन्द्रकीर्तिगणी ने वि० सं०
१२१२ में लिखी है। उसमें जैनधर्म और तत्त्वज्ञान से सम्बद्ध लगभग तीन
हजार सिद्धान्तों का दो विभागों में निरूपण है। ३. यह कृति संस्कृत छाया तथा उपाध्याय जिनपालरचित व्याख्या के साथ
'गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज़ के ३७वें पुष्प के रूप में सन् १९२७ में प्रकाशित 'अपभ्रंशकाव्यत्रयी' में पृ० १-२७ पर छपी है।
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