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________________ आगमसार और द्रव्यानुयोग जीता था । अतः सिद्धराज जयसिंह ने इन दोनों को अनुक्रम से 'सिंहशिशुक' और 'व्याघ्र शिशुक' विरुद दिये थे । गंगेशकृत तत्त्वचिन्तामणि में जिस सिंहव्याघ्रलक्षण' का अधिकार है वह इन दोनों सूरियों के व्याप्ति के लक्षण को लक्ष्य में रखकर है ऐसा डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने कहा है । सिद्धान्तार्णव की एक भी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध नहीं है । वनस्पतिसप्ततिका : इसके रचयिता अंगुलसत्तरि आदि के कर्ता मुनिचन्द्रसूरि हैं । इसके नाम को देखते हुए इसमें ७० पद्य होंगे । इसमें वनस्पति के विषय में जानकारी दी गई होगी । यह कृति अमुद्रित है, अतः इसकी हस्तलिखित प्रति देखने पर ही विशेष कहा जा सकता है । १८७ टीकाएँ - प्रस्तुत कृति पर दो वृत्तियाँ हैं : एक स्वोपज्ञ और दूसरी नागेन्द्र गच्छ के गुणदेवसूरिकृत । एक अवचूरि भी है, किन्तु इसके कर्ता का नाम अज्ञात है । कालशतक : यह उपर्युक्त मुनिचन्द्रसूरि की कृति । यह अप्रकाशित है, किन्तु नाम से प्रतीत होता है कि इसमें सौ या उससे कुछ अधिक पद्य होंगे और उनमें काल पर प्रकाश डाला गया होगा । शास्त्रसारसमुच्चय : इसके' कर्ता दिगम्बर माघनन्दी हैं । ये कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। इन्हें 'होयल' वंश के राजा नरसिंह ने सन् १२६५ में अनुदान दिया था । इन्होंने इसके अलावा पदार्थसार, श्रावकाचार और सिद्धान्तसार नाम के ग्रन्थ भी लिखे हैं । टीका -- इस पर कन्नड़ भाषा में एक टीका है । सिद्धान्तालापकोद्धार, विचारामृतसंग्रह अथवा विचारसंग्रह : २२०० श्लोक-परिमाण की इस कृति के रचयिता तपागच्छीय देवसुन्दरसूरि के शिष्य कुलमण्डनसूरि हैं । १. यह माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के २१ वें ग्रन्थांक के रूप में वि० सं० १९७९ में प्रकाशित हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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