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आगमसार और द्रव्यानुयोग
जीता था । अतः सिद्धराज जयसिंह ने इन दोनों को अनुक्रम से 'सिंहशिशुक' और 'व्याघ्र शिशुक' विरुद दिये थे । गंगेशकृत तत्त्वचिन्तामणि में जिस सिंहव्याघ्रलक्षण' का अधिकार है वह इन दोनों सूरियों के व्याप्ति के लक्षण को लक्ष्य में रखकर है ऐसा डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने कहा है । सिद्धान्तार्णव की एक भी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध नहीं है ।
वनस्पतिसप्ततिका :
इसके रचयिता अंगुलसत्तरि आदि के कर्ता मुनिचन्द्रसूरि हैं । इसके नाम को देखते हुए इसमें ७० पद्य होंगे । इसमें वनस्पति के विषय में जानकारी दी गई होगी । यह कृति अमुद्रित है, अतः इसकी हस्तलिखित प्रति देखने पर ही विशेष कहा जा सकता है ।
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टीकाएँ - प्रस्तुत कृति पर दो वृत्तियाँ हैं : एक स्वोपज्ञ और दूसरी नागेन्द्र गच्छ के गुणदेवसूरिकृत । एक अवचूरि भी है, किन्तु इसके कर्ता का नाम अज्ञात है ।
कालशतक :
यह उपर्युक्त मुनिचन्द्रसूरि की कृति । यह अप्रकाशित है, किन्तु नाम से प्रतीत होता है कि इसमें सौ या उससे कुछ अधिक पद्य होंगे और उनमें काल पर प्रकाश डाला गया होगा ।
शास्त्रसारसमुच्चय :
इसके' कर्ता दिगम्बर माघनन्दी हैं । ये कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। इन्हें 'होयल' वंश के राजा नरसिंह ने सन् १२६५ में अनुदान दिया था । इन्होंने इसके अलावा पदार्थसार, श्रावकाचार और सिद्धान्तसार नाम के ग्रन्थ भी लिखे हैं ।
टीका -- इस पर कन्नड़ भाषा में एक टीका है ।
सिद्धान्तालापकोद्धार, विचारामृतसंग्रह अथवा विचारसंग्रह :
२२०० श्लोक-परिमाण की इस कृति के रचयिता तपागच्छीय देवसुन्दरसूरि के शिष्य कुलमण्डनसूरि हैं ।
१. यह माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के २१ वें ग्रन्थांक के रूप में वि० सं० १९७९ में प्रकाशित हुआ है ।
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