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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गोयमपुच्छा ( गौतमपृच्छा ) :
जैन महाराष्ट्री में विरचित इस अज्ञातकतक कृति' में ६४ आर्या छन्द हैं। इसमें महावीर स्वामी के आद्य गणधर गौतमगोत्राय इन्द्रभूति के द्वारा पूछे गये ४८ प्रश्न प्रारम्भ की बारह गाथाओं में देकर तेरहवीं गाथा से महावीर स्वामी इन प्रश्नों के उत्तर देते हैं। धर्म एवं अधर्म का फल इसमें सूचित किया है। किस कर्म से संसारी जीव नरक आदि गति पाते हैं ? किस कर्म से उन्हें सौभाग्य या दौर्भाग्य, पाण्डित्य या मूर्खता, धनिकता या दरिद्रता, अपंगता, विकलेन्द्रियता, अनारोग्यता, दीर्घसंसारिता आदि प्राप्त होते हैं ? ये प्रश्न यहाँ उठाये गये हैं।
टीकाएं-इस पर निम्नलिखित व्याख्याएँ संस्कृत में लिखी गई हैं :
१. रुद्रपल्लीय गच्छ के देवभद्रसूरि के शिष्य श्रीतिलकरचित वृत्ति । इसका परिमाण ५६०० श्लोक है और इसका प्रारम्भ 'माधुर्यधुर्य' से किया गया है। यह वृत्ति विक्रम की चौदहवीं शती के उत्तरार्ध में लिखी गई है ।
२. वि० सं० १७३८ में जगतारिणी नगरी में खरतरगच्छ के सुमतिहंस के शिष्य मतिवर्धन द्वारा रचित ३८०० श्लोक-परिमाण की वृत्ति ।
३-६. अभयदेवसूरि, केसरगणी और खरतरगच्छ के अमृतधर्म के शिष्य क्षमाकल्याण को लिखी हुई तथा 'वीरं जिनं प्रणम्यादौ' से शुरू होनेवाली अज्ञातकर्तृक टीका-इस प्रकार चार दूसरी भी टीकाएँ हैं ।
बालावबोध-सुधाभूषण के शिष्य जिनसूरि ने२, सोमसुन्दरसूरि ने तथा वि० सं० १८८४ में पद्मविजयगणि ने एक-एक बालावबोध लिखा है। इनके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक बालावबोध भी है। सिद्धान्तार्णव :
इसके कर्ता अमरचन्द्रसूरि हैं। ये नागेन्द्र गच्छ के शान्तिसूरि के शिष्य थे। इन्होंने तथा इनके गुरुभाई आनन्दसूरि ने बाल्यावस्था में प्रखर वादियों को १. यह कृति मतिवर्धन की टीका के साथ हीरालाल हंसराज ने सन् १९२० में
छपाई है। इन्होंने ही अज्ञातकर्तृक टीका, जिसमें छत्तीस कथाएँ आती हैं, के साथ भी यह सन् १९४१ में प्रकाशित की है। इसके अतिरिक्त अज्ञातकतृक टीका के साथ मूल कृति 'नेमि-अमृत-खान्ति-निरंजन-ग्रन्थमाला' में
वि० सं० २०१३ में प्रकाशित हुई है। २. इनकी टीका को वृत्ति भी कहते हैं । ३. इनकी टीका को चूणि भी कहते हैं ।
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