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________________ १८४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है ऐसा इसमें कहा गया है। इन छः स्थानकों के अनुक्रम से ४, ६, ५, ४, ३ और ६ भेद किये गये हैं। टीकाएँ-जिनेश्वरसूरि के शिष्य और नवांगीवृत्तिकार अभयदेव ने इस पर १६३८ श्लोक-परिमाण का एक भाष्य लिखा है। जिनपतिसूरि के शिष्य उपाध्याय जिनपाल ने वि० सं० १२६२ में १४९४ श्लोक-परिमाण की एक वृत्ति संस्कृत में लिखी है । इसके प्रारम्भ में तीन पद्य, प्रत्येक स्थानक के अन्त में एकएक और अन्त में प्रशस्ति के रूप में ग्यारह पद्य है । बाकी का समग्र अंश गद्य में है । इसके अतिरिक्त एक वृत्ति थारापद्र गच्छ के शान्तिसूरि ने लिखी है और एक अज्ञातकर्तृक है। , जीवाणुसासण ( जीवानुशासन) : इसके कर्ता देवसूरि हैं। ये वीरचन्द्रसूरि के शिष्य थे, अतः ये 'वादी' देवसूरि से भिन्न हैं । इस ग्रन्थ में आगम आदि के उल्लेख के साथ जैन महाराष्ट्री में विरचित ३२३ आर्या छन्द हैं । समग्र ग्रन्थ ३८ अधिकारों में विभक्त है। इनमें निम्नांकित विषयों की चर्चा की गई है : १. जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा, २. पार्श्वस्थ को वन्दन, ३. पाक्षिक प्रतिक्रमण, ४. वन्दनकत्रय, ५. साध्वी द्वारा श्राविका की नन्दी, ६. दान का निषेध, ७. माघमाला का प्रतिपादन, ८. चतुर्विशतिपट्टक आदि की विचारणा, ९. अविधिकरण, १०. सिद्ध को बलि, ११. पार्श्वस्थ आदि के पास श्रवण आदि, १२. विधिचत्य, १३. दर्शनप्रभावक आचार्य, १४. संघ, १५. पार्श्वस्थ आदि की अनुवर्तना, १६. ज्ञान आदि की अवज्ञा, १७-८. गच्छ एवं गुरु के वचन का अत्याग, १९. ब्रह्मशान्ति इत्यादि का पूजन, २०. श्रावकों को आगम पढ़ने का अधिकार, २१. शिष्य के कन्धे पर बैठ कर विहार, २२. मासकल्प, २३. आचार्य की मलिनता का विचार, २४. केवल स्त्रियों का व्याख्यान, २५. श्रावकों का पार्श्वस्थ आदि को वन्दन, २६. श्रावक की सेवा, २७ साध्वियों को धर्मकथन का निषेध, २८. जिनद्रव्य का उत्पादन, २९. अशुद्ध ग्रहण का कथन, ३०. पार्श्वस्थ आदि के पास की गई तप की निन्दा, ३१. पार्श्वस्थ आदि द्वारा १. यह अप्रकाशित ज्ञात होता है। २. यह स्वोपज्ञ संस्कृत वृत्ति के साथ 'हेमचन्द्राचार्य जैन सभा' पाटन ने. सन् १९२८ में प्रकाशित किया है। ३, इन अधिकारों के नाम ३१७-३२१ गाथाओं में दिये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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