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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नवतत्तपयरण ( नवतत्त्वप्रकरण ):
'जीवाजीवा पुणं' से शुरू होनेवाले इस' अज्ञातकर्तृक प्रकरण में जैन महाराष्ट्री में विरचित ३० आर्याछन्द है। इनमें जीव आदि नव तत्त्वों का स्वरूप बतलाया है।
टीकाएँ-प्रस्तुत कृति पर संस्कृत टीकाएँ निम्नलिखित हैं :
१. देवसुन्दरसूरि के शिष्य कुलमण्डन की वृत्ति । कुलमण्डन ने 'रामाब्धिशक्रं' अर्थात् १४४३ में 'विचारामृतसंग्रह' लिखा है। इनका स्वर्गवास वि० सं० १४५५ में हुआ था ।
२. देवसुन्दरसूरि के शिष्य साधुरत्नरचित अवचूरि। इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १५१५ में लिखी मिलती है।
३. अंचलगच्छ के मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणिक्यशेखरकृत विवरण । इसका उल्लेख स्वयं उन्होंने अपनी 'आवश्यकदीपिका' में किया है।
४. परमानन्दसूरिरचित २५० श्लोक-परिमाण का विवरण ।
५. खरतरगच्छ के सकलचन्द्र के शिष्य समयसुन्दर द्वारा वि० सं० १६९८ में रचित टोका।
६. वि० सं० १७९७ में रत्नचन्द्ररचित टीका ।
७. पाल्कपुर गच्छ के कल्याण के प्रशिष्य और हर्ष के शिष्य तेजसिंहकृत टोका । इनके अतिरिक्त दो-तीन अन्य अज्ञातकर्तृक टीकाएं भी हैं ।
गुजरातो बालावबोध इत्यादि-देवसुन्दरसूरि के शिष्य सोमसुन्दरसूरि ने वि० सं० १५०२ में एक बालावबोध लिखा है। इसकी इसी वर्ष में लिखी गई हस्तलिखित प्रति मिलतो है । हर्षवर्धन उपाध्याय ने भी एक बालावबोध लिखा है । तपागच्छ के शान्तिविजयगणी के शिष्य मानविजयगणी ने पुरानी गुजराती में अवचरि लिखी है । इसके अतिरिक्त खरतरगच्छ के विवेकरत्नसूरि के शिष्य रत्नपाल ने प्राचीन गुजराती में वार्तिक लिखा है ।
१. भीमसिंह माणेक ने सन् १९०३ में 'लघुप्रकरणसंग्रह' में इसे प्रकाशित किया
था। इसके अलावा अनेक स्थानों से यह प्रकाशित हुआ है । २. देखिए-पट्टावलीसमुच्चय, भा० १, पृ० ६५. ३. प्रस्तुत कृति के अनेक गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद तथा विवेचन लिखे गये
हैं और वे प्रकाशित भी हुए हैं।
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