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________________ आगमसार और द्रव्यानुयोग १८१ भी कहते हैं। इसके प्रारम्भ में परम ज्योति अर्थात् चेतनारूप प्रकाश की जय हो ऐसा कहकर अनेकान्त को नमस्कार किया है। इसके पश्चात् निश्चयनय और व्यवहारनय का स्वरूप बतलाया है । इसके उपरान्त कर्म के कर्ता और भोक्ता के रूप में आत्मा का उल्लेख, धर्मोपदेश की रीति. सम्यक्त्व का स्वरूप और उसके निःशंकित आदि आठ अंग, सात तत्त्व, सम्यग्ज्ञान की विचारणा. हिंसा का स्वरूप, श्रावक के बारह व्रत और संलेखना तथा उनके पांच-पाँच अतिचार, तप के दो भेद, छः आवश्यक, तीन गुप्ति, पाँच समिति, दशविध धर्म, बारह भावनाएँ, परीषह, बन्ध का स्वरूप, अनेकान्त की स्पष्टता तथा ग्रन्थकार द्वारा प्रदर्शित लघुता-इस प्रकार अनेक विषयों का आलेखन इसमें किया गया है । आशाधर ने धर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका में इसमें से कई पद्य उद्धृत किये हैं। टोकाएं और अनुवाद-इस पर एक अज्ञातकर्तृक टीका है। पण्डित टोडरमल ने इस पर एक भाषा-टीका लिखी है, परन्तु उसके अपूर्ण रहने पर दौलतरामजी ने उसे वि० सं० १८२७ में पूर्ण किया है । दूसरी एक भाषा-टीका पं० भूधर ने वि० सं० १८७१ में लिखी है।' तत्त्वार्थसार : यह दिगम्बर अमृतचन्द्रसूरि की कृति है। समग्र कृति सात अध्यायों में विभक्त है । इसमें जीव आदि सात पदार्थों का निरूपण है । अ० ५, श्लो० ६ में इन्होंने कहा है कि केवली सचेलक हो सकता है और वह ग्रासाहार-कवलाहार करता है यह विपरीत मिथ्यात्व है। इससे अमृतचन्द्रसूरि दिगम्बर थे ऐसा फलित होता है। अ० ७, श्लो० १० में षष्ठ, अष्टम इत्यादि का प्रयोग आता है। इससे ऐसा सूचित होता है कि इन्हें श्वेताम्बर ग्रन्थों का परिचय था। अमृतचन्द्र की है ऐसा कहा है, किन्तु यह विचारणीय प्रतीत होता है। देखिए-उपयुक्त चौथी आवृत्ति में 'जैन साहित्य और इतिहास' में से उद्धृत अंश । १. इसका अंग्रेजी में अनुवाद जगमंदरलाल जैनी ने किया है और वह छपा भी है। २. यह सन् १९०५ में 'सनातन जैन ग्रन्थमाला' में छपा है। १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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