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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सत्तरिसयठाणपयरण ( सप्ततिशतस्थानप्रकरण ) :
३५९ गाथा की जैन महाराष्ट्री में रचित इस कृति' के प्रणेता सोमतिलकसूरि हैं । ये तपागच्छ के धर्मघोषसूरि के शिष्य सोमप्रभसूरि के शिष्य थे। सोमतिलकसूरि का जन्म वि० सं० १३५५ में हुआ था। इन्होंने दीक्षा १३६९ में ली थी और सूरि-पद १३७३ में प्राप्त किया था। इनका स्वर्गवास १४२४ में हुआ था। इस कृति में ऋषभ आदि तीर्थंकरों के बारे में भव आदि १७० बातों का विचार किया गया है।
टोका-इस पर रामविजयगणी के शिष्य देवविजय ने २९०० श्लोक-परिमाण की एक टीका वि० सं० १३७० में लिखी है।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय : ___ इसके कर्ता प्रवचनसार इत्यादि के टीकाकार दिगम्बर अमृतचन्द्रसूरि हैं। इसमें २२६ आर्या पद्य हैं। इसे 'जिनप्रवचनरहस्यकोश' तथा 'श्रावकाचार'3
१. इसे देवविजयकृत टीका के साथ जैन आगमोदय समिति ने वि० सं०
१९७५ में प्रकाशित की है। इसके पश्चात् श्री ऋद्धिसागरसूरिरचित छाया के साथ मूल कृति 'बुद्धिसागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर' बीजापुर की ओर से वि० सं० १९९० में छपी है। इसका ऋद्धिसागरसूरिकृत गुजराती
अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। २. इस ग्रन्थ की प्रथम आवृत्ति रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला में वीर संवत्
२४३१ ( सन् १९०४ ) में और चौथी वीर संवत् २४७९ ( सन् १९५३ ) में प्रकाशित हुई है। इस चौथी आवृत्ति में पं० नाथूराम प्रेमी की हिन्दी में लिखित भाषा-टीका को स्थान दिया गया है । यह भाषा-टीका पं० टोडरमल की अपूर्ण टीका के आधार पर लिखी गई है। इसके अतिरिक्त जगमन्दरलाल जैनी के अंग्रेजी अनुवाद के साथ मूल कृति सन् १९३३ में
प्रकाशित की गई है। ३. यह नाम मेघविजयगणी के 'जुत्तिपबोहनाडय' में आता है। उन्होंने
'जुत्तिपबोहनाडय' ( गा० ७ ) की टीका में 'सव्वे भावा जम्हा' से शुरू होनेवाली गाथा को अमृतचन्द्र-रचित कहा है। यह तथा 'ढाढसी' गाथा में आनेवाली और 'संघो को वि न तारइ' से शुरू होनेवाली गाथा भी
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