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________________ १७९ आगमसार और द्रव्यानुयोग श्रीचन्द्र नाम के दो या फिर अभिन्न एक ही मुनिवर यहाँ अभिप्रेत हों तो भी उनके विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती, जिसके आधार पर पवयणसारुद्धार की पूर्वसीमा निश्चित की जा सके । गा० २३५ में आवस्सयचुण्णि का निर्देश है। टीकाएँ-इस पर सिद्धसेनसूरि को १६५०० श्लोक-परिमाण की तत्त्वप्रकाशिनी नाम की एक वृत्ति है। इसका रचना-समय 'कविसागररवि' अर्थात् वि० सं० १२४८ अथवा १२७८ है। वृत्ति में अनेक उद्धरण आते हैं । प्रारम्भ के तीन पद्यों में से पहले में जैन-ज्योति की प्रशंसा की गई है और दूसरे में वर्धमान विभु ( महावीर स्वामी ) की स्तुति है। वृत्ति के अन्त में १९ पद्य की एक प्रशस्ति है, जिससे इसके प्रणेता की गुरु-परम्परा ज्ञात होती है । वह परम्परा इस प्रकार है : अभयदेवसूरि', धनेश्वरसूरि, अजितसिंहसूरि, वर्धमानसूरि, देवचन्द्रसूरि, चन्द्रप्रभसूरि, भद्रेश्वरसूरि, अजितसिंहसूरि, देवप्रभसूरि ।२।। पत्र ४४० आ सिद्धसेनसूरि ने अपनी इस वृत्ति में स्वरचित निम्नलिखित तीन कृतियों का निर्देश किया है : १. पउमप्पहचरिय २. सामाआरी पत्र ४४३ अ ३. स्तुति पत्र १८० आ ('जम्मि सिरिपासपडिम' से शुरू होनेवाली ) इसके अतिरिक्त रविप्रभ के शिष्य उदयप्रभ ने इस पर ३२०३ श्लोकप्रमाण 'विषमपद' नाम की व्याख्या लिखी है। यह रविप्रभ यशोभद्र के शिष्य और धर्मघोष के प्रशिष्य थे। इस पर एक और ३३०३ श्लोक-परिमाण की विषमपदपर्याय नाम की अज्ञातकर्तृक टीका है। एक अन्य टीका भी है, किन्तु उसके कर्ता का नाम अज्ञात है। पद्ममन्दिरगणी ने इस पर एक बालावबोध लिखा है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १६५१ की लिखी मिलती है। १. वादमहार्णव के कर्ता । २. प्रमाणप्रकाश के प्रणेता। ३. इस कृति का आद्य पद्य ही दिया गया है । ४. इस कृति का एक ही पद्य दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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