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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास और कायस्थिति, २४३. गर्भस्थ जीव का आहार, २४४. मर्भसम्भूति, २४५-६. पुत्र एवं पिता की संख्या, २४७. स्त्री के गर्भाभाव और पुरुष के अबीजत्व का काल, २४८. गर्भ का स्वरूप, २४९. देशविरति आदि के लाभ का समय, २५०. मनुष्यगति की अप्राप्ति, २५१-२. पूर्वांग एवं पूर्व का परिमाण, २५३. लवणशिखा का परिमाण, २५४. उत्सेध आदि तीन प्रकार के अंगुल, २५५. तमस्काय, २५६. सिद्ध आदि छः अनन्त, २५७. अष्टांग निमित्त, २५८. मान, उन्मान और प्रमाण, २५९. अठारह प्रकार के भक्ष्य-भोज्य, २६०. षट्स्थानक वृद्धि और हानि, २६१. संहरण के लिए अयोग्य जीव (श्रमणी आदि), २६२. छप्पन अन्तर्वीप, २६३. जीव और अजीव का अल्पबहुत्व, २६४. युगप्रधानों की संख्या, २६५. उत्सर्पिणी में अन्तिम जिन का तीर्थ, २६६. देवों का प्रवीचार', २६७. आठ कृष्णराजी, २६८. अस्वाध्याय, २६९. नन्दीश्वर द्वीप का स्वरूप, २७०. अट्ठाईस लब्धियाँ, २७१. विविध तप, २७२. पातालकलश, २७३. आहारक का स्वरूप, २७४. अनार्य देश, २७५. आर्य देश और २७६. सिद्ध के इकतीस गुण ।
अन्त में प्रशस्ति के रूप में कर्ता ने अपने वंश का परिचय देकर अपना नाम दिया है और अपनी विनम्रता प्रकट की है।
संक्षेप में कहना हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि इसमें ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के बारे में भिन्न-भिन्न प्रकार की जानकारी दी गई है; सिद्ध, साधु, श्रावक, काल, कर्मग्रन्थि, आहार, जीवविचार, नय इत्यादि के बारे में अनेक बातें इसमें आती हैं; देव एवं नारकों के विषय में भी विचार किया गया है तथा भौगोलिक और गर्भविद्या के विषय में भी कतिपय बातों का इसमें निर्देश है।
जीवसंखाकुलय (जीवसंख्याकुलक ) नाम की सत्रह पद्य की२ अपनी कृति नेमिचन्द्रसूरि ने २१४ वें द्वार के रूप में मूल में ही समाविष्ट कर ली है। सातवें द्वार की ३०३वीं गाथा में श्रीचन्द्र नामक मुनिपति का उल्लेख है। ऐसा लगता है कि शायद गा० २८७ से ३०३ तक की गाथाएँ उन मुनिवर द्वारा रचित प्राकृत कृति हो । गा० ४७० में श्रीचन्द्रसूरि का उल्लेख है। सम्भवतः वे ही उपयुक्त मुनिपति हों । गा० ४५७ से ४७० भी शायद उन्हीं की कृति हो ।
१. अब्रह्म का सेवन । २. गा० १२३२ से १२४८ तक के इस छोटे से कुलक पर एक अज्ञातकर्तृक
वृत्ति है। ३. देखिए-द्वितीय भाग का उपोद्धात, पत्र ४ आ.
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