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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
चन्द्र के शिष्य गजसार ने जैन महाराष्ट्री की ४४ गाथाओं में की है । इसमें इन्होंने यद्यपि चौबीस दण्डकों के बारे में शरीर आदि चौबीस द्वारों का निर्देश करके जानकारी दी है, तथापि इसकी रचना तीर्थंकरों की विज्ञप्तिरूप है ।
टीकाएँ - स्वयं गजसार ने वि० सं० १५७९ में इस पर एक अवचूर्णि लिखी है । अन्तिम गाथा की अवचूर्णि में लेखक ने प्रस्तुत कृति को विचारषट्त्रिंशिका सूत्र कहा है। इसमें जैसा सूचित किया है उसके अनुसार पहले यंत्र के रूप में इसकी रचना की गई थी । इसके अतिरिक्त उदयचन्द्र के शिष्य रूपचन्द्र ने वि० सं० १६७५ में अपने बोध के लिए इस पर एक वृत्ति लिखी है । इसके प्रारम्भ में प्रस्तुत कृति को 'लघुसंग्रहणी' कहा है । यह वृत्ति ५३६ श्लोक -परिमाण है । मूल कृति पर समयसुन्दर की भी एक टीका है ।
पवयणसारुद्धार ( प्रवचनसारोद्धार ) :
जैन महाराष्ट्री में प्रायः आर्या छन्द में रचित १५९९ पद्यों के अत्यन्त मूल्यवान् इस ग्रन्थ' के प्रणेता नेमिचन्द्रसूरि हैं । यह आम्रदेव ( अम्मएव ) के शिष्य तथा जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे । यशोदेवसूरि इनके छोटे गुरुभाई होते हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ जैन प्रवचन के सारभूत पदार्थों का बोध कराता है । इसमें आये हुए अनेक विषय प्रद्युम्नसूरि के वियारसार ( विचारसार) में देखे जाते हैं, परन्तु ऐसे भी अनेक विषय हैं जो एक में है तो दूसरे में नहीं हैं ।" इससे ये दोनों ग्रन्थ एक-दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं ।
प्रवचनसारोद्धार में २७६ द्वार हैं । इनमें निम्नलिखित विषयों का निरूपण है :
हुआ है। इसके उत्तर भाग में स्वोपज्ञ अवचूर्णि तथा रूपचन्द्र की संस्कृत वृत्ति के साथ मूल कृति दी गई है ।
१. यह ग्रन्थ सिद्धसेनसूरिकृत तत्त्वप्रकाशिनी नाम की वृत्ति के साथ दो भागों में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने अनुक्रम से सन् १९२२ और १९२६ में प्रकाशित किया है । दूसरे भाग के प्रारम्भ में उपोद्घात तथा अन्त में वृत्तिगत पाठों, व्यक्तियों, क्षेत्रों एवं नामों की अकरादि क्रम से सूची है । प्रथम भाग में १०३ द्वार और ७७१ गाथाए हैं, जबकि दूसरे भाग में १०४ से २७६ द्वार तथा ७७२ से १५९९ तक की गाथाएँ हैं ।
२. ऐसे विषयों की सूची उपोद्घात में दी गई है ।
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