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आगमसार और द्रव्यानुयोग
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हैं । श्रीचन्द्रसूरि 'मलधारी' हेमचन्द्र के लघु शिष्य थे । इन्होंने वि० सं० ११९३ में मुणिसुन्वयचरिय ( मुनिसुव्रत-चरित ) लिखा। इसके अतिरिक्त खेत्तसमास ('नमिउं वीरं' से प्रारम्भ होनेवाला ) भी लिखा है।' ये एक बार लाट देश के किसी राजा के, सम्भवतः सिद्धराज जयसिंह के, मंत्री ( मुद्राधिकारी ) थे । इन्होंने प्रस्तुत कृति में उपर्युक्त संग्रहणीगत नौ अधिकारों को स्थान दिया है। इन अधिकारों के नाम पहली दो गाथाओं में दिये गये हैं । इस कृति में यद्यपि लगभग संग्रहणी के जितनी ही गाथाएँ हैं, तथापि इसमें अर्थ का आधिक्य है, ऐसा कहा जाता है । कितने ही दशकों से इस संगहणिरयण का ही अध्ययन के लिये उपयोग किया जाता है।
टीकाएँ-श्रीचन्द्रसूरि के ही शिष्य देवभद्रसूरि ने इस पर संस्कृत में एक टीका लिखी है । इन्होंने अपनी टीका में सूरपण्णत्ति की नियुक्ति में से उद्धरण दिये हैं तथा अनुयोगद्वार की चूणि एवं उसकी हारिभद्रीय टीका का उल्लेख किया है।
इसके अतिरिक्त इस पर एक अज्ञातकर्तृक टीका तथा धर्मनन्दनगणी एवं चारित्रमुनिरचित एक-एक अवचूरि भी है। दयासिंहगणी ने वि० सं० १४९७ में और शिवनिधानगणी ने वि० सं० १६८० में इस पर एक-एक बालावबोध भी लिखा है।
विचारछत्तोसियासुत्त ( विचारषट्त्रिंशिकासूत्र ) :
इसे दण्डकप्रकरण अथवा लघुसंग्रहणी' भी कहते हैं। इसकी रचना धवल
प्रकाशित हुई है। इसमें ६५ चित्र और १२४ यंत्र दिये गये हैं। अन्त में मूल कृति गुजराती अर्थ के साथ दी गई है। इस प्रकाशन का नाम 'त्रैलोक्यदीपिका' याने 'श्रीबृहत्संग्रहणीसूत्रम्' दिया गया है । इसी से सम्बद्ध पाँच परिशिष्ट इसी माला के ५२वें पुष्प के रूप में वि० सं० २००० में
एक अलग पुस्तिका के रूप में छपे हैं । १. प्रत्याख्यानकल्पाकल्पविचार यानी लघुप्रवचनसारोद्धार-प्रकरण भी इनकी
कृति है। २. ग्रन्थ-प्रकाशक सभा की ओर से गुजराती शब्दार्थ और विस्तारार्थ एवं यंत्र
आदि के साथ 'दण्डकप्रकरणम्' के नाम से सन् १९२५ में यह प्रकाशित
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