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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सारा भाग गद्य में है। यह चार आह्निक में विभक्त है । इसमें भरत क्षेत्र, हिमवत् ( पर्वत), हैमवत ( क्षेत्र ), महाहिमवत् ( पर्वत), हरिवर्ष ( क्षेत्र ), निषध ( पर्वत ), नीलगिरि ( पर्वत ), रम्यक ( क्षेत्र ), रुक्मिन् ( पर्वत ), हैरण्यवत (क्षेत्र), शिखरिन् (पर्वत), ऐरावत ( क्षेत्र ), मेरु, वक्षस्कार, उत्तरकुरु, देवकुरु, ३२ विजय, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्कराध, नन्दीश्वर द्वीप और परिधि इत्यादि से सम्बद्ध सात करणों के विषय में जानकारी दी गई है।
टोका-प्रस्तुत कृति पर हरिभद्रसूरि के शिष्य विजयसिंहसूरि ने वि० सं० १२१५ में टीका लिखी है। इसके प्रारम्भ में सात और अन्त में सोलह ( ४ + १२ ) की प्रशस्ति है। इसके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति २८८० श्लोक-परिमाण की है। समयखित्तसमास ( समयक्षेत्रसमास) अथवा खेत्तसमास (क्षेत्रसमास ) :
वि० सं० ५४५ से ६५० में होनेवाले जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणरचित यह कृति जैन महाराष्ट्री में है और इसमें ६३७ गाथाएँ ( पाठान्तर के अनुसार ६५५ गाथाएँ ) हैं।
प्रस्तुत कृति अपने नाम 'समयखित्तसमास' के अनुसार समयक्षेत्र का अर्थात् जितने क्षेत्र में सूर्य आदि के गति के आधार पर समय की गणना की जाती है उतने क्षेत्र का यानी ढाई द्वीप का-मनुष्य लोक का निरूपण करती है। इसमें
१. देखिए-जिन-रत्नकोश, विभाग १, पृ० ९८. २. मलयगिरि की टीका के साथ यह ग्रन्थ वि० सं० १९७७ में जैनधर्म प्रसारक
सभा ने बृहत्क्षेत्रसमास के नाम से छपवाया है। उसमें मूल ग्रन्थ पाँच अधिकारों में विभक्त किया गया है जिनमें क्रमशः ३९८, ९०, ८१, ११
और ७६ ( कुल ६५६ ) पद्य हैं। ३. इस पर मलयगिरि ने जो टीका लिखी है उसमें उपान्त्य गाथा में आनेवाले
६३७ के उल्लेख को ही लक्ष्य में रखा है, न कि पाठान्तर को । आश्चर्य की बात तो यह है कि इस तरह उन्हें ६३७ को पद्य-संख्या तो मान्य है, परन्तु टीका ६५६ पद्य की ही है। उन्होंने कहीं भी क्षेपक पद्यों का निर्देश नहीं किया है। यदि ऐसा ही मान लिया जाय, तो १९ अधिक पद्य कौन-से हैं इसका निर्णय करना बाकी रह जाता है।
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