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भागमसार और द्रव्यानुयोग
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वि० सं० १८५० में तथा किसी अज्ञात लेखक ने प्रदीपिका नाम की अवचूरि-टीका लिखी है ।
इसका फ्रेंच अनुवाद गेरिनो ( Guarinot ) ने किया है और वह 'जर्नल एशियाटिक' में मूल के साथ १९०२ में प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त जयन्त पी० ठाकर के द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है । इसके अलावा गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद भी कई स्थानों से प्रकाशित हुए हैं ।
पण्णवणातइयपय संगहणी ( प्रज्ञापनातृतीयपदसंग्रहणी ) :
यह १३३ पद्य की जैन महाराष्ट्री में रचित संग्रहात्मक कृति ' है । इसके संग्रहकर्ता नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि हैं । इन्होंने पण्णवणा ( प्रज्ञापना ) के ३६ पदो में से 'अप्पबहुत्त' (अल्पबहुत्व ) नाम के तीसरे पद को लक्ष्य में रखकर जीवों का २७ द्वारों द्वारा अल्पबहुत्व दिखलाया है ।
टीकाएँ – कुलमण्डनसूरि ने वि० सं० १४७१ में इसकी अवचूर्णि लिखी है । इसके अतिरिक्त ज्ञानविजय के शिष्य जीवविजय ने वि० सं० १७८४ में इस संग्रहणी पर बालावबोध भी लिखा है । जीवाजीवाभिगमसंगहणी ( जीवाजीवाभिगम संग्रहणी ) :
अज्ञातकर्तृक इस कृति में २२३ पद्य हैं । इसकी एक ही हस्तलिखित प्रति का जिनरत्नकोश ( वि० १, पृ० १४३ ) में उल्लेख है और वह सूरत के एक भण्डार में है । प्रति को देखने पर ही इसका विशेष परिचय दिया जा सकता है, परन्तु नाम से तो ऐसा अनुमान होता है कि इसमें जीवाजीवाभिगम सूत्र के विषयों का संग्रह होगा ।
जम्बूद्वीपसमास :
इस कृति के कर्ता वाचक उमास्वाति हैं ऐसा कई विद्वानों का कहना है । इसे क्षेत्रसमास भी कहते हैं । इसके प्रारम्भ में एक पद्य हैं, जबकि बाकी का १. यह अवचूरि के साथ जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर ने वि०सं० १९७४ में प्रकाशित की है ।
यह सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम के साथ 'बिब्लियोथिका इण्डिका' सिरीज में बंगाल रायल एशियाटिक सोसायटी की ओर से विजयसिंहसूरिरचित टीका के साथ १९०३ में प्रकाशित हुई है । इसके अतिरिक्त इसी टीका के साथ मूल कृति 'सत्यविजय ग्रन्थमाला' अहमदाबाद से भी १९२२ में प्रकाशित हुई है ।
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