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________________ आगमसार और द्रव्यानुयोग १५७ के एक, दो ऐसे दस विकल्प, पुद्गल के स्कन्ध आदि चार प्रकार, परमाणु का स्वरूप, शब्द की पौद्गलिकता, धर्मास्तिकाय आदि का स्वरूप, रत्नत्रय के लक्षण, जीव आदि नौ तत्त्वों का निरूपण, जीव के भेद-प्रभेद, प्रशस्त राग और अनुकम्पा की स्पष्टता, व्यवहार एवं निश्चयनय की अपेक्षा से मोक्ष एवं मोक्षमार्ग की विचारणा' तथा जीव का स्वसमय और परसमय में प्रवर्तन । स्वयं कर्ता ने प्रस्तुत कृति को 'संग्रह' कहा है । इसमें परम्परागत पद्य कमोबेशरूप में संकलित किये गये हों ऐसा प्रतीत होता है। २७ वी गाथा में जीव के जिस क्रम से लक्षण दिये हैं उसी क्रम से उनका निरूपण नहीं किया गया है । क्या संग्रहात्मकता इसका कारण होगी ? प्रस्तुत कृति की बारहवीं गाथा का पूर्वार्ध सन्मति के प्रथम काण्ड की बारहवीं गाथा के पूर्वार्ध की याद दिलाता है । पंचत्थिकायसंगह की गाथा १५ से २१ में 'सत्' और 'असत्' विषयक वादों की अनेकान्तदृष्टि से जो विचारणा की गई है वह सन्मति के तृतीय काण्ड की गाथा ५० से ५२ में देखी जाती है । इसकी २७ वीं गाश में आत्मा का स्वरूप जैन दृष्टि से दिखलाया है; यही बात सन्मति के तीसरे काण्ड की गाथा ५४-५५ में आत्मा के विषय में छः मुद्दों का निर्देश करके कही गई है ।२ सन्मति के तीसरे काण्ड की ८ से १५ गाथाएँ कुन्दकुन्द के गुण और पर्याय की भिन्नतारूप विचार का खण्डन करनेवाली हैं ऐसा कहा जा सकता है। उसमें 'गुण' के प्रचलित अर्थ में अमुक अंश में परिवर्तन देखा जा सकता है। टोकाएँ-प्रस्तुत कृति पर अमृतचन्द्र ने तत्त्वदीपिका अथवा समयव्याख्या नाम की टीका लिखी है। इसमें टीकाकार ने कहा है कि द्रव्य में प्रतिसमय परिवर्तन होने पर भी उसके स्वभाव अर्थात् मूल गुण को अबाधित रखने का कार्य 'अगुरुलघु' नामक गुण करता है। १४६ वीं गाथा की टीका में मोक्खपाहुड में से एक उद्धरण उद्धृत किया गया है। इसके अतिरिक्त जयसेन, ब्रह्मदेव, १. इस विभाग को कई लोग 'चूलिका' भी कहते हैं । २. देखिए-सन्मति-प्रकरण की प्रस्तावना, पृ० ६२. ३. इनकी टोका का नाम 'तात्पर्यवृत्ति' है। इसकी पुष्पिका के अनुसार मूल कृति तीन अधिकारों में विभक्त है। प्रथम अधिकार में १११ गाथाएँ हैं और आठ अन्तराधिकार है, द्वितीय अधिकार में ५० हैं गाथाएं और दस अन्तराधिकार हैं तथा तृतीय अधिकार में २० गाथाएँ हैं और वह बारह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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