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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १५० और काल का निरूपण, परमाणु और प्रदेश की स्पष्टता, प्रमेय का लक्षण, नामकर्म का कार्य, स्कन्धों की उत्पत्ति, शुद्ध आत्मा का स्वरूप बन्ध की व्याख्या और ममत्व का अभाव । 1 आदि आभ्यन्तर लिंग, श्रमण के श्रमण, अप्रमत्तता, श्रमणों का आहार, शुभ उपयोग में विद्यमान श्रमणों की प्रवृत्ति, और शुद्ध जीव का स्वरूप । तृतीय अधिकार — जैन श्रमण के अचेलकता आदि बाह्य और परिग्रहत्याग मूल गुण, छेदोपस्थापक मुनि, निर्यापक स्वाध्याय का महत्त्व, आदर्श श्रमणता, गुणाधिक श्रमणों की सम्मान विधि सोलहवीं गाथा में केवलज्ञान आदि गुण प्राप्त करनेवाले को 'स्वयम्भू' कहा है, क्योंकि अन्य किसी द्रव्य की सहायता के बिना वह अपने स्वरूप को प्रकट करता है; वह स्वयं छः कारकरूप बनकर अपनी सिद्धि प्राप्त करता है । सिद्धसेन दिवाकर ने प्रथम द्वात्रिंशिका के पहले श्लोक में और समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में 'स्वयम्भू' शब्द प्रयुक्त किया है । अधिकार १, गाथा ५७-८ में प्रत्यक्ष और परोक्ष की जो व्याख्या दी गई है। वह न्यायावतार ( श्लोक ४ ) का स्मरण कराती है । अधि० १, गा० ४६ में और सन्मतिप्रकरण ( काण्ड १, गा० १७ - ८ ) में एकान्तवाद में संसार और मोक्ष की अनुपपत्ति एक जैसी दिखलाई गई है ।" कुन्दकुन्द ने द्रव्य की चर्चा जिस तरह अनेकान्त दृष्टि से की है उसी तरह सिद्धसेन ने सन्मतिप्रकरण के तीसरे काण्ड में ज्ञेय के विषय में की है । २ व्याख्याएँ - पवयणसार पर संस्कृत, कन्नड़ और हिन्दी में व्याख्याएँ हैं । संस्कृत व्याख्याओं में अमृतचन्द्र की वृत्ति सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है । इन्होंने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और तत्त्वार्थसार नामक ग्रन्थ लिखे हैं तथा समयसार और पंचत्थि काय संगह पर टीकाएँ लिखी हैं । अमृतचन्द्र का समय ईसा की दसवीं सदी के लगभग है । इनकी वृत्ति का नाम तत्त्वदीपिका है । दूसरी संस्कृत टीका जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति है । इसमें टीकाकार ने पंचत्थि - कायसंग की टीका का निर्देश किया है । दार्शनिक विषयों के निरूपण में ये १. समन्तभद्र ने भी ऐसा ही किया है । देखिए –स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक १४. २. देखिए - सन्मतिप्रकरण का गुजराती परिचय, पृ० ६२. ३. देखिए – पृ० १२१, १६२ और १८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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