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आगमसार और द्रव्यानुयोग
१४९ प्राकृत के एक प्रकार जैन शौरसेनी में आर्या छन्द में रचित कृति है। इसकी दो वाचनाएँ मिलती हैं। इनमें से एक अमृतचन्द्र ने अपनी वृत्ति में अपनाई है, तो दूसरी जयसेन, बालचन्द्र' आदि ने अपनी-अपनी टीका में ली है। पहली वाचना में कुल २७५ पद्य हैं । तीन श्रुतस्कन्धों में विभक्त इसके प्रत्येक स्कन्ध में क्रमशः ९२, १०८ और ७५ गाथाएँ हैं और इनमें ज्ञानतत्त्व, ज्ञेयतत्त्व तथा चरणतत्त्व का निरूपण किया गया है। दूसरी वाचना इससे बड़ी है। इसके तीन अधिकारों में क्रमशः १०१, ११३ और ९७ ( कुल ३११) पद्य हैं।
पवयणसार, पंचत्थिकायसंगहसुत्त अथवा पंचत्थिकायसार और समयसार के समूह को प्राभूतत्रय' भी कहते हैं। यह वेदान्तियों के प्रस्थानत्रय की याद दिलाता है।
प्रवचनसार:
पवयणसार का प्रारम्भ पंचपरमेष्ठी के नमस्कार से होता है। उसमें निम्नलिखित बातों का सन्निवेश किया गया है :
- प्रथम अधिकार-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का मोक्षमार्ग के रूप में उल्लेख, चारित्र का धर्म के रूप में निर्देश, धर्म का शम के साथ ऐक्य और शम का लक्षण, द्रव्य का लक्षण, जीव के शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम, शुद्ध उपयोग वाले जीव को निर्वाण की और शुभ उपयोग वाले जीव को स्वर्ग की प्राप्ति, अशुभ परिणाम का दुःखदायी फल, सर्वज्ञ का स्वरूप, ‘स्वयम्भू' शब्द की व्याख्या, ज्ञान द्वारा सर्वव्यापिता, श्रुतकेवली, सूत्र और अतीन्द्रिय ज्ञान तथा क्षायिक ज्ञान की व्याख्या, तीर्थंकरों की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ, द्रव्यों की तथा प्रत्येक द्रव्य के पर्यायों की अनन्तता, पुद्गल का लक्षण, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान का स्पष्टीकरण, सिद्ध परमात्मा की सूर्य के साथ तुलना, इन्द्रियजन्य सुख की असारता, तीर्थंकर के समग्र स्वरूप के बोध से आत्मज्ञान तथा मोह के लिंग।
द्वितीय अधिकार-द्रव्य, गुण और पर्याय का लक्षण और स्वरूप तथा इन तीनों का परस्पर सम्बन्ध, सप्तभंगी का सूचन, जीवादि पाँच अस्तिकाय १. इनकी टीका कन्नड़ भाषा में है। २. प्रस्थानत्रय में वैदिक धर्म के मूलरूप उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता
का समावेश होता है।
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