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द्वितीय प्रकरण
आगमसार और द्रव्यानुयोग आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ :
द्राविड़ भाषा में कोण्डकुन्ड के नाम से प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा क एक अग्रगण्य एवं सम्माननीय मुनिवर तथा ग्रन्थकार हैं। बोधपाहुड के अन्तिम पद्य के आधार पर कई लोग इन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी का शिष्य मानते हैं, परन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है। इसी प्रकार शिवभूति के शिष्य होने की कतिपय श्वेताम्बरों की कल्पना भी समीचीन नहीं है । दिगम्बर ग्रन्थों में इनका विविध नामों से उल्लेख मिलता है; जैसे-पद्मनन्दी, गृध्रपिच्छ, वक्रग्रीव और एलाचार्य; किन्तु इन नामों की तथ्यता शंकास्पद है। कुन्दकुन्दाचार्य कब हुए इस बारे में कोई स्पष्ट और प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। इन्होंने स्त्री-मुक्ति तथा जैन साधुओं की सचेलकता जैसे श्वेताम्बरीय मन्तव्यों का जिस उग्रता से निरसन किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैसे स्पष्ट दो वर्ग ७८ ई० के आसपास हो जाने के पश्चात् ये हुए हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य के उपलब्ध सभी ग्रन्थ प्राकृत पद्य में हैं, अर्थात् उनका एक भी ग्रन्थ न तो गद्य में है और न संस्कृत में। पवयणसार ( प्रवचनसार )
१. दसभत्ति में गद्यात्मक अंश हैं, परन्तु उसके कुन्दकुन्द की मौलिक रचना
होने में सन्देह है। २. यह कृति अमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वप्रदीपिका नाम की संस्कृत वृत्ति, जय
सेनरिकृत तात्पर्यवृत्ति, हेमराज पाण्डे की विक्रम संवत् १७०९ में लिखी गयी हिन्दी ‘बालबोधिनी' ( भाषा टीका ), डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये के मूल अंग्रेजी अनुवाद और विस्तृत प्रस्तावना आदि के साथ 'रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला' में १९३५ ई० में प्रकाशित हुई है। अमृतचन्द्रसूरि की उपर्युक्त टीका तथा गुजराती अनुवाद आदि के साथ इसकी एक आवृत्ति 'जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट' सोनगढ़ की ओर से भी १९४८ में प्रकाशित हुई है।
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