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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
देशी अर्थात् कर्णाटकी वृत्ति का उल्लेख किया गया है । ये गाथाएँ इस प्रकार हैं :
गोम्मटसंग सुत्तं गोम्मटदेवेण गोम्मटं रइयं । कम्माण णिज्जरट्ठ तच्चट्ठवधारण ं च ॥ ९६५ ॥ जहि गुणा विस्संता गणहरदेवादिइड्ढिपत्ताणं । सो अजय सेणणाहो जस्स गुरू जयउ सो राओ ॥ ९६६ ॥ सिद्धंतुदयत डुग्गयणि मलवरणेमिचंदकर कलिया । गुणरयणभूसणंबु हिमइवेला भरउ भुवणयलं ।। ९६७ ।। गोम्मटसंग हत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणोय | गोम्मट रायविणिम्मियदक्खिणकुक्कडजिणो जयउ ।। ९६८ ।। जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्टसिद्धिदेवेहिं । सव्वपरमो हिजो गिहि दिट्ठे सो गोम्मटो जयउ || ९६९ ॥ वज्जयणं जिणभवणं ईसिपभारं सुवण्णकलसं तु । तिहुवणडिमाणिक्कं जेण कयं जयउ सो राओ ।। ९७० ॥ जेणुब्भियथंभुवरिमजक्खतिरोटग्गकिरणजलधोया । सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ ।। ९७१ ।। गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कथा देसी । सो राओ चिरकालं णामेण य वीरमत्तंडी ॥ ९७२ ॥
कर्मप्रकृति - यह १६१ गाथाओं का एक संग्रहग्रन्थ ' है जो प्रायः गोम्मटसार
के कर्ता नेमिचन्द्राचार्य की कृति समझा जाता है । इस ग्रन्थ का अधिकांश भाग गोम्मटसार की गाथाओं से निर्मित हुआ है । इसमें गोम्मटसार की १०२ गाथाएँ ज्यों-की-त्यों उद्धृत हैं ।
गोम्मटसार की व्याख्याएँ :
गोम्मटसर पर सर्वप्रथम गोम्मटराय - चामुण्डराय ने कर्णाटक - कन्नड़ में वृत्ति लिखी । इस वृत्ति का अवलोकन स्वयं नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने किया ।
१. यह ग्रन्थ पं० हीरालाल शास्त्री द्वारा सम्पादित अनूदित होकर भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से सन् १९६४ में प्रकाशित हुआ है । इस संस्करण में तीन टीकाएँ सम्मिलित हैं : १. मूलगाथाओं के साथ ज्ञानभूषण-सुमतिकीर्ति की संस्कृत टीका, २. अज्ञात आचार्यकृत संस्कृत टीका, ३. संस्कृत टीकागभित पं० हेमराजरचित भाषा टीका ।
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