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अन्य कर्मसाहित्य की अपेक्षा से बन्धादिस्थान, दो आधारों व एक आधेय की अपेक्षा से बन्धादिस्थान।
प्रत्यय प्रकरण के प्रारम्भ में आचार्य ने मुनि अभयनन्दि, गुरु इन्द्रनन्दि तथा स्वामी वीरनन्दि को प्रणाम किया है :
णमिऊण अभयणंदि सुदसायरपारगिंदणंदिगुरुं । वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥ ७८५ ।।
इसके बाद आस्रवों का भेदसहित स्वरूप बताते हुए मूलप्रत्ययों और उत्तरप्रत्ययों का कथन किया है तथा प्रत्ययों की व्युच्छित्ति एवं अनुदय व कर्मों के बन्ध के कारणों एवं परिणामों पर प्रकाश डाला है ।
भावचूलिका प्रकरण के प्रारम्भ में गोम्मट जिनेन्द्रचन्द्र को प्रणाम किया गया है :
गोम्मटजिणिंदचंदं पणमिय गोम्मटपयत्थसंजुत्तं ।
गोम्मटसंगहविसयं भावगयं चूलियं वोच्छं ॥ ८११ ॥ इसके बाद भावविषयक निम्न बातों का विचार किया गया है : भेदसहित भावों के नाम, भावों की उत्पत्ति का कारण, भावों के स्थानभंग और पदभंग, एकान्तमत के विविध भेद ।
त्रिकरणचूलिका प्रकरण के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने आचार्य वीरनन्दि एवं गुरु इन्द्रनन्दि को प्रणाम करने के लिए कहा है : ।
णमह गुण रयण भूसण सिद्धतामियमहद्धिभवभावं ।
वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिदणंदिगुरुं ।। ८९६ ॥ प्रस्तुत प्रकरण में निम्नलिखित तीन करणों का विवेचन किया गया है : अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तकरण ।
कर्मस्थिति रचना प्रकरण के प्रारम्भ में सिद्धों को नमस्कार किया गया है । इस प्रकरण में निम्नोक्त विषयों का प्रतिपादन है : कर्मस्थितिरचना के प्रकार, कर्मस्थितिरचना की अंकसंदृष्टि, कर्मस्थितिरचना की अर्थदृष्टि, सत्तारूप त्रिकोण यंत्ररचना, स्थिति के भेद, स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, रसबन्धाध्यवसायस्थान ।
ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्तिपरक आठ गाथाएँ हैं जिनमें ग्रन्थ रचना का प्रयोजन बताते हुए मुनि अजितसेन का सादर स्मरण किया गया है, गोम्मटराय (चामुण्डराय ) को आशीर्वाद दिया गया है तथा गोम्मटरायकृत गोम्मटसार की
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