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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
की उदीरणा से विशेषता, उदीरणा की व्युच्छित्ति, उदीरणा अनुदीरणाप्रकृतियों की संख्या, सत्त्वप्रकृतियों का स्वरूप, सत्स्वव्युच्छित्ति, सत्त्व असत्त्व प्रकृतियों की संख्या 1 प्रस्तुत प्रकरण के अन्त में भी मंगलाचरण किया गया है ।
सत्त्वस्थानभंग प्रकरण के प्रारम्भ में तीर्थंकर वर्धमान को नमस्कार किया गया है । इस प्रकरण में निम्नलिखित विषयों का प्रतिपादन हैं : आयु के बन्धाबघ की अपेक्षा से गुणस्थानों में सत्त्वस्थान, मिथ्यात्वगुणस्थान के स्थानों की प्रकृतियाँ, मिथ्यात्वगुणस्थान में भंगसंख्या, सासादनादि गुणस्थानों में स्थान और भंगों की संख्या । प्रकरण के अन्त में ग्रन्थकार ने लिखा है कि श्रेष्ठ इन्द्रनन्दि गुरु के पास सकल सिद्धान्त सुनकर श्री कनकनन्दि गुरु ने सत्त्वस्थान का सम्यक् कथन किया है । जैसे चक्रवर्ती ( भारत ) ने अपने चक्ररत्न से ( भारत के ) छः खण्डों पर निर्विघ्न अधिकार किया था वैसे ही मैंने अपने बुद्धिचक्र से षट्खण्डागम पर अच्छी तरह अधिकार किया है :
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण
सयलसिद्धतं ।
सिरिकणयदिगुरुणा
सत्ताणं समुद्दिट्ठ ।। ३९६ ।। जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंड साहियं सम्मं ॥ ३९७ ।।
त्रिचूलिका प्रकरण के प्रारम्भ में जिनेन्द्रदेवों को नमस्कार किया गया है तथा त्रिचूलिका प्रकरण के कथन की प्रतिज्ञा की गई है । इस प्रकरण में निम्नोक्त तीन चूलिकाओं का व्याख्यान किया गया है: नवप्रश्नचूलिका, पंचभागहारचूलिका और दशकरणचूलिका । दशकरणचूलिका के व्याख्यान के प्रारम्भ में आचार्य ने अपने श्रुतगुरु अभयनन्दि को नमस्कार किया है :
जस्स य वीरिंददिवच्छो
पायपसायेणणंतसंसारजल हिमुत्तिष्णो ।
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णमामि तं अभयदिगुरुं ।। ४३६ ॥
स्थानसमुत्कीर्तन प्रकरण के प्रारम्भ में आचार्य ने नेमिनाथ को प्रणाम किया है । प्रस्तुत प्रकरण में निम्न विषयों का विवेचन है : गुणस्थानों में प्रकृति संख्यासहित बन्धादिस्थान, उपयोग - योग-संयम लेश्या सम्यक्त्व की अपेक्षा से मोहनीय कर्म के उदयस्थानों तथा प्रकृतियों की संख्या, मोहनीय कर्म के सत्त्वस्थान, नाम कर्म के जीवपद, नाम कर्म के बन्धादिस्थान तथा भंग, बन्धउदय - सत्त्व के त्रिसंयोगी भंग, जीवसमासों की अपेक्षा से बन्ध-उदय-सत्त्वस्थान, मार्गणाओं को अपेक्षा से बग्ध-उदय सत्त्वस्थान, एक आधार और दो आधेयों
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