________________
अन्य कर्मसाहित्य
१३७
आहारक-अनाहारक का अन्तर, समुद्धात के भेद, आहारक व अनाहारक का काल प्रमाण, आहारमार्गणा में जीवसंख्या ।
उपयोग प्रकरण में उपयोग का लक्षण बताते हुए साकार एवं अनाकार उपयोग का विवेचन किया गया है ।
अन्तिम गाथा में आचार्य ने गोम्मटराय को आशीर्वाद दिया है : अज्जज्जसेणगुणगणसमूहसंधारिअजियसेणगुरू । भुवणगुरू जस्स गुरू सो राओ गोम्मटो जयतु ॥ ७३३ ।।
कर्मकाण्ड-गोम्मटसार के द्वितीय भाग कर्मकाण्ड में कर्मसम्बन्धी निम्नोक्त नौ प्रकरण हैं : १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. बन्धोदयसत्त्व, ३. सत्त्वस्थानभंग, ४. त्रिचूलिका, ५. स्थानसमुत्कीर्तन, ६. प्रत्यय, ७. भावचूलिका. ८. त्रिकरणचूलिका, ९. कर्मस्थितिरचना ।
सर्वप्रथम आचार्य ने तीर्थकर नेमि को नमस्कार किया है तथा प्रकृतिसमुकीर्तन प्रकरण का कथन करने का संकल्प किया है : पणमिय सिरसा मि गुणरयणविभूषणं महावीरं । सम्मत्तरयणणिलयं पयडिसमुक्कित्तणं वोच्छं ॥ १ ॥
प्रकृति समुत्कीर्तन प्रकरण में निम्न विषय हैं : कर्मप्रकृति का स्वरूप, कर्मनोकर्म ग्रहण करने का कारण, कर्म-नोकर्म के परमाणुओं की संख्या, कर्म के भेद, घाति-अघातिकर्म, बन्धयोग्य प्रकृतियाँ, उदयप्रकृतियां, सत्त्वप्रकृतियाँ, घाती कर्मों के भेद, अघाती कर्मों के भेद, कषायों का कार्य, पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ, भवविपाकी-क्षेत्रविपाकी-जीवविपाकी प्रकृतियाँ, नामादि चार निक्षेपों से कर्म के भेद ।
बन्धोदयसत्त्व प्रकरण के प्रारम्भ में पुनः तीर्थंकर नेमि को नमस्कार किया गया है। इस प्रकरण में निम्नोक्त विषयों का प्रतिपादन हुआ है : कर्म को बन्ध-अवस्था के भेद, प्रकृतिबन्ध व गुणस्थान, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध, प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति, स्थितिबन्ध का स्वरूप, स्थिति के उत्कृष्टादि भेद, स्थिति की आबाधा, उदय की आबाधा, उदीरणा को आबाधा, कर्मों का निषेक, अनुभागबन्ध का स्वरूप, अनुभाग के उत्कृष्टादि भेदों के स्वामी, प्रदेशबन्ध का स्वरूप, कर्मप्रदेशों का मूलप्रकृतियों में विभाजन, कर्मप्रदेशों का उत्तरप्रकृतियों में विभाजन, प्रदेशबन्ध के उत्कृष्टादि भेद, योगस्थानों का स्वरूप-संख्याभेद-स्वामी, कर्मों का उदय व उदयव्युच्छित्ति, उदय-अनुदयप्रकृतियों की संख्या, उदयप्रकृतियों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org