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जैन साहित्य का बुहद् इतिहास का प्रमाण, स्थावर और उसकायिकों का आकार, काय का कार्य, कायरहितों अर्थात् सिद्धों का स्वरूप, पृथ्वीकायिकादि की संख्या। योगमार्गणा में निम्नलिखित विषयों का व्याख्यान किया गया है : योग का सामान्य व विशेष लक्षण, दस प्रकार का सत्य, चार प्रकार का मनोयोग, चार प्रकार का वचनयोग, सात प्रकार का काययोग, सयोगी केवली का मनोयोग, अयोगी जिन, शरीर में कर्म-नोकर्म का विभाग, कर्म-नोकर्म का उत्कृष्ट संचय, पाँच प्रकार के शरीर की उत्कृष्ट स्थिति, योगमार्गणा में जीवों की संख्या। वेदमार्गणा में तीन वेदों का स्वरूप बताया गया है तथा वेद की अपेक्षा से जीवों को संख्या का विचार किया गया है। कषायमार्गणा में कषाय का निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताते हुए क्रोधादि चार कषायों का स्वरूप समझाया गया है तथा कषाय की अपेक्षा से जीवसंख्या का विचार किया गया है। ज्ञानमार्गणा में निम्नोक्त विषयों का प्रतिपादन किया गया है : ज्ञान का लक्षण, पाँच ज्ञानों का क्षायोपशमिक व क्षायिकरूप से विभाग, मिथ्याज्ञान का कारण, मिश्रज्ञान का कारण, तीन मिथ्याज्ञानों का स्वरूप, मतिज्ञान का स्वरूप, श्रुतज्ञान का लक्षण, श्रुतज्ञान के भेद, अवधिज्ञान का स्वरूप, अवधि का द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से वर्णन, मनःपर्ययज्ञान का स्वरूप व भेद, केवलज्ञान का स्वरूप, ज्ञानमार्गणा में जीवसंख्या । संयममार्गणा में निम्न विषय हैं : संयम का स्वरूप, संयम के पाँच भेद, संयम की उत्पत्ति, सामायिक संयम, छेदोपस्थापना संयम, परिहारविशुद्धि संयम, सूक्ष्मसाम्पराय संयम, यथाख्यात संयम, देशविरत, असंयत, संयम की अपेक्षा से जीवसंख्या। दर्शनमार्गणा में दर्शन का लक्षण बताते हुए चक्षुर्दर्शन आदि का स्वरूप समझाया गया है एवं दर्शन की अपेक्षा से जीवसंख्या का प्रतिपादन किया गया है । लेश्यामार्गणा में निम्नोक्त १६ दृष्टियों से लेश्याओं का विचार किया गया है : १. निर्देश, २. वर्ण, ३. परिणाम, ४. संक्रम, ५. कर्म, ६. लक्षण, ७. गति, ८. स्वामी, ९. साधन, १०. संख्या, ११. क्षेत्र, १२. स्पर्श, १३. काल, १४. अन्तर, १५. भाव, १६. अल्पबहुत्व । भव्यमार्गणा में भव्य, अभव्य एवं भव्यत्वाभव्यत्वरहित जीव का स्वरूप बताते हुए तत्सम्बन्धी जीवसंख्या का प्रतिपादन किया गया है। सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यक्त्व का लक्षण बताते हुए निम्न विषयों का निरूपण किया गया है : षड्द्रव्य, पचास्तिकाय, नव पदार्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, औपशमिक सम्यक्त्व, पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्वग्रहण के योग्य जीव, सम्यक्त्वमार्गणा में जीवसंख्या । संज्ञिमार्गणा में संज्ञी-असंज्ञी का स्वरूप बताते हुए तद्गत जीवसंख्या का विचार किया गया है। आहारमार्गणा में निम्न बातों का निरूपण है : आहार का स्वरूप,
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