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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अघाती, पुण्यधर्मा, पापधर्मा, परावर्तमाना और अपरावर्तमाना हैं । तदनन्तर इस बात का विचार किया गया है कि इन्हीं प्रकृतियों में से कौन-कौन प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी एवं पुद्गलविपाकी हैं। इसके बाद ग्रन्थकार ने प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, ( रसबन्ध ) ए प्रदेशबन्ध इन चार प्रकार के बन्धों का स्वरूप बताया है । इनका सामान्य परिचय तो प्रथम कर्मग्रन्थ में दे दिया गया है, किन्तु विशेष विवेचन के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ का आधार लिया गया है । प्रकृतिबन्ध का वर्णन करते हुए आचार्य ने मूल तथा उत्तरप्रकृतियों से सम्बन्धित भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित एवं अवक्तव्य बन्धों पर प्रकाश डाला है। स्थितिबन्ध का विवेचन करते हुए जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति एवं इस प्रकार की स्थिति का बन्ध करने वाले प्राणियों का वर्णन किया है । अनुभागबन्ध के वर्णन में शुभाशुभ प्रकृतियों में तीव्र अथवा मन्द रस पड़ने के कारण, उत्कृष्ट व जघन्य अनुभागबन्ध के स्वामी इत्यादि का समावेश किया गया है। प्रदेशबन्ध के वर्णन में वर्गणाओं का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है एवं अन्त में उपशमश्रेणि एवं क्षपकश्रेणि का स्वरूप बताया गया है ।
नव्य कर्मग्रन्थों की व्याख्याएँ :
आचार्य देवेन्द्रसूरि ने अपने पांचों कर्मग्रन्थों पर स्वोपज्ञ टीका लिखी थी किन्तु किसी कारण से तृतीय कर्मग्रन्थ की टीका नष्ट हो गई। इसकी पूर्ति के लिए बाद के किसी आचार्य ने अवचूरिरूप नई टीका लिखी । गुणरत्नसूरि व मुनिशेखरसूरि ने पांचों कर्मग्रन्थों पर अवचूरियाँ लिखीं। इनके अतिरिक्त कमलसंयम उपाध्याय आदि ने भी इन कर्मग्रन्थों पर छोटी-छोटी टीकाएँ लिखी हैं । हिन्दी व गुजराती में भी इन पर पर्याप्त विवेचन लिखा गया है।
१. ( अ ) हिन्दी विवेचन ( सप्ततिकासहित )-आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक
मंडल, आगरा. (आ) गजराती विवेचन ( सप्ततिकासहित )( क ) जैन श्रेयस्कर मंडल, मेहसाना. (ख ) प्रथम तीन-हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थमाला, अहमदाबाद. (ग) शतक ( पंचम )-मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा. (ध ) टबार्थसहित ( छः )-जैन विद्याशाला, अहमदाबाद. (6) यंत्रपूर्वक कर्मादिविचार-जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर,
वि० सं० १९७३.
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