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अन्य कर्मसाहित्य
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बन्ध की योग्यता क्या है ? इस प्रकार इस ग्रन्थ में आचार्य ने मार्गणा एवं गुणस्थान दोनों दृष्टियों से कर्मबन्ध का विचार किया है। संसार के प्राणियों में जो भिन्नताएँ अर्थात् विविधताएँ दृष्टिगोचर होती हैं उनको जैन कर्मशास्त्रियों ने चौदह विभागों में विभाजित किया है। इन चौदह विभागों के ६२ उपभेद हैं । वैविध्य के इसी वर्गीकरण को 'मार्गणा' कहा जाता है। गुणस्थानों का आधार कर्मपटल का तरतमभाव एवं प्राणी की प्रवृत्ति-निवृत्ति है, जबकि मार्गणाओं का आधार प्राणी की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विभिन्नताएँ हैं। मार्गणाएँ जीव के विकास की सूचक नहीं हैं अपितु उसके स्वाभाविक-वैभाविक रूपों के पृथक्करण की सूचक हैं, जबकि गुणस्थानों में जीव के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का विचार किया जाता है । इस प्रकार मार्गणाओं का आधार प्राणियों की विविधताओं का साधारण वर्गीकरण है जबकि गुणस्थानों का आधार जीवों का आध्यात्मिक विकास-क्रम है । प्रस्तुत कर्मग्रन्थ की गाथा-संख्या २४ है ।
षडशीति-प्रस्तुत कर्मग्रन्थ को 'षडशीति' इसलिए कहते हैं कि इसमें ८६ गाथाएं हैं । इसका एक नाम 'सूक्ष्मार्थ-विचार' भी है और वह इसलिए कि ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के अन्त में 'सुहुमत्थवियारो' ( सूक्ष्मार्थविचार ) शब्द का उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ में मुख्यतया तीन विषयों की चर्चा है : जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान । जीवस्थान में गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन आठ विषयों का वर्णन किया गया है। मार्गणास्थान में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प-बहुत्व इन छ: विषयों का वर्णन है। गुणस्थान में जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अल्प-बहुत्व इन दस विषयों का समावेश किया गया है । अन्त में भाव तथा संख्या का स्वरूप बताया गया है। जीवस्थान के वर्णन से यह मालूम होता है कि जीव किन-किन अवस्थाओं में भ्रमण करता है। मार्गणास्थान के वर्णन से यह विदित होता है कि जीव के कर्मकृत व स्वाभाविक कितने भेद हैं । गुणस्थान के परिज्ञान से आत्मा की उत्तरोत्तर उन्नति का आभास होता है । इस जीवस्थान, मार्गणास्थान एवं गुणस्थान के ज्ञान से आत्मा का स्वरूप एवं कर्मजन्य रूप जाना जा सकता है।
शतक-शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में १०० गाथाएँ हैं। यही कारण है कि इसका नाम शतक रखा गया है। इसमें सर्वप्रथम बताया गया है कि प्रथम कर्मग्रन्थ में वर्णित प्रकृतियों में से कौन-कौन प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, ध्रुवोदया, अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका, अध्रुवसत्ताका, सर्वघाती, देशघाती,
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