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________________ १३० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य ने बताया है कि कर्मबन्ध सहेतुक अर्थात् सकारण है । इसके बाद कर्म के स्वरूप का परिचय देने के लिए ग्रन्थकार ने कर्म का चार दष्टियों से विचार किया है : प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अथवा रस एवं प्रदेश । प्रकृति के मुख्य आठ भेद हैं : ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन आठ मूल प्रकृतियों के विविध उत्तरभेद होते हैं जिनकी संख्या १५८ तक होती है। इन भेदों का स्वरूप बताने के लिए आचार्य ने प्रारम्भ में ज्ञान का निरूपण किया है। ज्ञान के पाँच भेदों का संक्षेप में निरूपण करते हुए तदावरणभूत कर्म का सदृष्टान्त निरूपण किया है । दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेदों में पाँच प्रकार की निद्राएँ भी समाविष्ट हैं, इसे बताते हुए आचार्य ने इन निद्राओं का सुन्दर वर्णन किया है। इसके बाद सुख और दुःख के जनक वेदनीय कर्म, श्रद्धा और चारित्र के प्रतिबन्धक मोहनीय कर्म, जीवन की मर्यादा के कारणभूत आयु कर्म, जाति आदि विविध अवस्थाओं के जनक नाम कर्म, उच्च और नीच गोत्र के हेतुभूत गोत्र कर्म एवं प्राप्ति आदि में बाधा पहुंचाने वाले अन्तराय कर्म का संक्षेप में वर्णन किया है। अन्त में प्रत्येक प्रकार के कर्म के कारण पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत कर्म ग्रन्थ में ६० गाथाएँ हैं। कर्मस्तव-प्रस्तुत कर्मग्रन्थ में कर्म की चार अवस्थाओं का विशेष विवेचन किया गया है । ये अवस्थाएं हैं-बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता। इन अवस्थाओं के वर्णन में गुणस्थान की दृष्टि प्रधान रखी गयी है। बन्धाधिकार में आचार्य ने चौदह गुणस्थानों के क्रम को लेते हुए प्रत्येक गुणस्थानवी जीव की कर्मबन्ध की योग्यता-अयोग्यता का विचार किया है। इसी प्रकार उदयादि अवस्थाओं के विषय में भी समझना चाहिए । गुणस्थान का अर्थ है आत्मा के विकास की विविध अवस्थाए। इन अवस्थाओं को हम आध्यात्मिक विकासक्रम कह सकते हैं। जैन परम्परा में इस प्रकार की चौदह अवस्थाएं मानी गई है । इनमें आत्मा क्रमशः कर्म-मल से विशुद्ध होता हुआ अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है। कर्म-पुंज का सर्वथा क्षय कर मुक्ति प्राप्त करनेवाले प्रभु महावीर की स्तुति के बहाने से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना करने के कारण इसका नाम 'कर्मस्तव' रखा गया है। इसकी गाथा-संख्या ३४ है ।। बन्ध-स्वामित्व-प्रस्तुत कर्मग्रन्थ में मार्गणाओं की दृष्टि से गुणस्थानों का वर्णन किया गया है एवं यह बताया गया है कि मार्गणास्थित जीवों की सामान्यतया कर्मबन्ध-सम्बन्धी कितनी योग्यता है व गुणस्थान के विभाग के अनुसार कर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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