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________________ अन्य कर्मसाहित्य १२९ था। इन्होंने सटीक पाँच कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति, सिद्धपंचाशिकासूत्रवृत्ति, सुदर्शनाचरित्र, वन्दारुवृत्ति, सिद्ध दण्डिका आदि ग्रन्थों की भी रचना की। ये प्राकृत एवं संस्कृत के साथ-ही-साथ जैनसिद्धान्त एवं दर्शनशास्त्र के भी पारंगत विद्वान् थे ।' आचार्य देवेन्द्रसूरि ने जिन पाँच कर्मग्रन्थों की रचना की है उनका आधार शिवशर्मसूरि, चन्द्रषिमहत्तर आदि प्राचीन आचार्यों द्वारा बनाये गये कर्मग्रन्थ हैं । देवेन्द्रसूरि ने अपने कर्मग्रन्थों में केवल प्राचीन कर्मग्रन्थों का भावार्थ अथवा सार ही नहीं दिया है; अपितु नाम,विषय, वर्णनक्रम आदि बातें भी उसी रूप में रखी हैं। कहीं-कहीं नवीन विषयों का भी समावेश किया है । प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों में से पाँच कर्मग्रन्थों के आधार पर आचार्य देवेन्द्रसूरि ने जिन पाँच कर्मग्रन्थों की रचना की है वे नव्य-कर्मग्रन्थ कहे जाते हैं । इन कर्मग्रन्थों के नाम भी वही हैं : कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्ध-स्वामित्व, षडशीति और शतक । ये पाँचों कर्मग्रन्थ क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पंचम कर्मग्रन्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । उपर्युक्त पाँच नामों में से भी प्रथम तीन नाम विषय को दृष्टि में रखते हुए रखे गये हैं, जबकि अन्तिम दो नाम गाथा संख्या को दृष्टि में रखकर रखे गये हैं । इन कर्मग्रन्थों की भाषा भी प्राचीन कर्म ग्रन्थों की ही भांति प्राकृत ही है। जिस छन्द में इनकी रचना हुई है उसका नाम आर्या है । कर्मविपाक-ग्रन्थकार ने प्रथम कर्मग्रन्थ के लिए आदि एवं अन्त में 'कर्मविपाक' ( कम्मविवाग) नाम का प्रयोग किया है। कर्मविपाक का विषय सामान्यतया कर्मतत्त्व होते हुए भी इसमें कर्मसम्बन्धी अन्य बातों पर विशेष विचार न किया जाकर उसके प्रकृति-धर्म पर ही प्रधानतया विचार किया गया है। दूसरे शब्दों में प्रस्तुत कर्मग्रन्थ में कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियों के विपाक-परिपाकफल का ही मुख्यतया वर्णन किया गया है । इस दृष्टि से इसका 'कर्मविपाक' नाम सार्थक है। (इ) जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३४. (ख) स्वोपज्ञटीकासहित पंचम कर्मग्रन्थ ( सप्ततिका सटीकसहित )(अ ) जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९१९. (आ) जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९४०. १. देखिए-मुनि चतुरविजयसम्पादित चत्वारः कर्मग्रन्थाः', प्रस्तावना, पृ० १६-२० ( जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३४ ). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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