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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हेमचन्द्र ( विक्रम की १२ वीं सदी), दूसरी के उदयप्रभसूरि ( सम्भवतः विक्रम की १३ वीं सदी ) तथा तीसरी के गुणरत्नसूरि (विक्रम की १५ वीं सदी) हैं।
सप्ततिका के कर्ता के विषय में निश्चितरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। सामान्य प्रचलित मान्यता के अनुसार चन्द्रर्षिमहत्तर इसके कर्ता कहे जाते हैं। ऐसी भी सम्भावना है कि शिवशर्मसूरि ही इसके कर्ता हों। इस पर अभयदेवसूरिकृत भाष्य, अज्ञातकर्तृक चूर्णि', चन्द्रषिमहत्तरकृत प्राकृत वृत्ति, मलयगिरिकृत टीका, मेरुतुंगसूरिकृत भाष्यवृत्ति, रामदेवकृत टिप्पन व गुणरत्नसूरिकृत अवचूरि है।
इन छः कर्मग्रन्थों में से प्रथम पाँच में उन्हीं विषयों का प्रतिपादन है जो देवेन्द्रसूरिकृत पाँच नव्य कर्मग्रन्थों में साररूप से हैं। सप्ततिकारूप षष्ठ कर्मग्रन्थ में निम्न विषयों का विवेचन है :
_बन्ध, उदय, सत्ता व प्रकृतिस्थान, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ एवं बन्धादिस्थान, आठ कर्मों के उदीरणास्थान, गुणस्थान एवं प्रकृतिबन्ध, गतियाँ एवं प्रकृतियाँ, उपशमश्रेणि व क्षपकश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि-आरोहण का अन्तिम फल । जिनवल्लभकृत सार्धशतक :
__ अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि ( विक्रम की १२ वीं सदी ) की कर्मविषयक यह कृति १५५ गाथाओं में है। इस पर अज्ञातकर्तृक भाष्य, मुनिचन्द्रसूरिकृत चूणि ( वि० सं० ११७० ), चक्रेश्वरसूरिकृत प्राकृत वृत्ति, धनेश्वरसूरिकृत टीका ( वि० सं० ११७१ ) एवं अज्ञातकर्तृक वृत्ति-टिप्पन है । देवेन्द्रसूरिकृत नव्य कर्मग्रन्थ :
स्वोपज्ञवृत्तियुक्त पाँच नव्य कर्मग्रन्थों की रचना करने वाले देवेन्द्रसूरि जगच्चन्द्रसुरि के शिष्य थे। देवेन्द्रसूरि का स्वर्गवास वि० सं० १३२७ में हुआ
१. धनेश्वरसूरिकृत टीकासहित-जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर,
सन् १९१५. २. (क) प्रथम-द्वितीय-चतुर्थ स्वोपज्ञविवरणोपेत तथा तृतीय अन्याचार्यविरचित
अवचूरिसहित(अ) जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि० सं० १९६६-१९६८. (आ) मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा, वि० सं० २४४७.
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