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________________ १२२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जयइ जगहितदमवितहममियगभीरत्थमणुपमं णिउणं। जिणवयणमजियममियं भव्वजणसुहावहं जयइ ।। १ ।। अन्त में 'जस्स वरसासणा"......' गाथा का व्याख्यान किया गया है । मलयगिरिविहित वृत्ति-इस वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने अरिष्टनेमि को प्रणाम किया है एवं चूणिकार के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की है : प्रणम्य कर्मद्रुमचक्रनेमि, नमत्सुराधीशमरिष्टनेमिम् । कर्मप्रकृत्याः कियतां पदानां, सुखावबोधाय करोमि टीकाम् ॥ १ ॥ अयं गुणश्चूर्णिकृतः समग्रो, यदस्मदादिर्वदतीह किञ्चित् । उपाधिसम्पर्कवशाद्विशेषो, लोकेऽपि दृष्टः स्फटिकोपलस्य ॥ २ ॥ अन्त में वृत्तिकार ने कर्मप्रकृति के मूल आधार का निर्देश करते हुए जैन सिद्धान्त एवं चूर्णिकार को नमस्कार किया है एवं प्रस्तुत वृत्ति से प्राप्त फल को लोककल्याण के लिए समर्पित किया है : कर्मप्रपञ्च जगतोऽनुबन्धक्लेशावहं वीक्ष्य कृपापरीतः । क्षयाय तस्योपदिदेश रत्नत्रयं स जीयाज्जिनवर्धमानः॥१॥ निरस्तकुमतध्वान्तं सत्पदार्थप्रकाशकम् । नित्योदयं नमस्कुर्मो जैनसिद्धान्तभास्करम् ॥ २॥ पूर्वान्तर्गतकर्मप्रकृतिप्राभृतसमुद्धृता येन । कर्मप्रकृतिरियमतः श्रुतकेवलिगम्यभावार्था ।। ३ ॥ ततः क्क चैषा विषमार्थयुक्ता, क्क चाल्पशास्त्रार्थकृतश्रमोऽहम् । तथापि सम्यग्गुरुसम्प्रदायात्, किञ्चित्स्फुटार्था विवृता मयैषा ।। ४ ।। कर्मप्रकृतिनिधानं बह्वथं येन मादृशां योग्यम् । चक्रे परोपकृतये श्रीचूर्णिकृते नमस्तस्मै ॥ ५ ॥ एनामतिगभीरां कर्मप्रकृति विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धि तेनास्नुतां लोकः ॥ ६ ॥ अहंन्तो मङ्गलं मे स्युः सिद्धाश्च मम मङ्गलम् । मङ्गलं साधवः सम्यग् जैनो धर्मश्च मङ्गलम् ॥ ७ ॥ यशोविजयकृत टीका-इस टीका के प्रारम्भ में आचार्य ने पार्श्वनाथ को प्रणाम किया है एवं चूर्णिकार तथा मलयगिरि का उपकार मानते हुए प्रस्तुत टीका के निर्माण का संकल्प किया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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