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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
ग्रन्थों का समावेश है । इन ग्रन्थों का आधार पूर्वोद्धृत कर्मसाहित्य है । इस समय विशेषतया इन्हीं प्रकरण-ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन प्रचलित है । ये ग्रन्थ अपेक्षाकृत सरल एवं लघुकाय हैं । इनके अपेक्षित अवलोकन के अनन्तर पूर्वोद्धृत कर्मग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन विशेष फलदायी होता है । प्राकरणिक कर्मग्रन्थों का लेखन कार्य विक्रम की आठवीं नवीं शती से लेकर सोलहवीं - सत्रहवीं शती तक हुआ है । आधुनिक विद्वानों ने भी हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं में कर्मविषयक साहित्य का निर्माण किया है जो मुख्यतया कर्मग्रन्थों के विवेचन एवं व्याख्यान के रूप में है ।
के अतिरिक्त उन पर लिखी गई कुछ टीका-टिप्पणियाँ भी प्राकृत में हैं । संस्कृत में पीछे से कुछ कर्मग्रन्थ बने हैं। अधिकतर संस्कृत में कर्मशास्त्र पर टीका-टिप्पणियाँ ही लिखी गई हैं । संस्कृत में लिखित मूल कर्मग्रन्थ प्राकरणिक कर्मशास्त्र में समाविष्ट हैं । प्रादेशिक भाषाओं में लिखित कर्मसाहित्य कन्नड़, गुजराती और हिन्दी में है । इनमें मौलिक ग्रन्थ नाम मात्र के हैं । मुख्यतया इनमें मूल ग्रन्थों
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तथा टीकाओं का अनुवाद अथवा विवेचन किया गया है । ये अनुवाद अथवा विवेचन विशेषतया प्राकरणिक कर्मशास्त्र से सम्बन्धित हैं । कन्नड़ एवं हिन्दी में : - मुख्यतया दिगम्बर साहित्य लिखा गया है जबकि गुजराती में विशेषकर श्वेताम्बर साहित्य की रचना हुई है ।
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भाषा की दृष्टि से कर्मसाहित्य को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है : प्राकृत में लिखित कर्मशास्त्र, संस्कृत में लिखित कर्मशास्त्र और प्रादेशिक भाषाओं में लिखित कर्मशास्त्र । पूर्वात्मक एवं पूर्वोद्धृत कर्मग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं । प्राकरणिक कर्मसाहित्य का भी बहुत बड़ा अंश प्राकृत में ही है । मूल ग्रन्थों
जो इस समय उपलब्ध हैं अथवा जिनके होने का पता अन्य ग्रन्थों में उल्लि - खित उल्लेखों से लगता है उन महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थों एवं टीकाओं की सूची ' नीचे दी जाती है जिससे कर्मविषयक साहित्य की समृद्धि की कल्पना करने में सरलता होगी । दिगम्बर और खेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के इस विपुल साहित्य
१. सटीकाश्चत्वारः कर्मग्रन्थाः ( मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित ), षष्ठ परिशिष्ट, पृ० १७-२० ( आवश्यक परिवर्तन एवं परिवर्धन के साथ ).
प्रो० हीरालाल रसिकदास कापडिया का 'कर्मसिद्धान्तसम्बन्धी साहित्य' ग्रन्थ भी दृष्टव्य है ।
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