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षष्ठ प्रकरण
अन्य कर्मसाहित्य भारतीय तत्त्वचिन्तन की तीनों मुख्य शाखाओं-वैदिक, बौद्ध और जैन परम्परा के साहित्य में कर्मवाद का विचार किया गया है । वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में कर्मसम्बन्धी विचार इतना अल्प है कि उसमें कर्मविषयक कोई खास ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके विपरीत जैन साहित्य में कर्मसम्बन्धी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। जैन परम्परा में कर्नवाद का बहुत सूक्ष्म, सुव्यवस्थि एवं अति विस्तृत विवेचन किया गया है। कर्मविषयक साहित्य का जैन साहित्य में निःसन्देह एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह साहित्य 'कर्मशास्त्र' अथवा 'कर्मग्रन्थ' के रूप में प्रसिद्ध है । स्वतन्त्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त आगमादि अन्य जैन ग्रन्थों में भी यत्रतत्र कर्मविषयक चर्चा देखने को मिलती है।
भगवान महावीर के समय से लेकर वर्तमान समय तक फर्मशास्त्र का जो संकलन हुआ है उसके स्थूलरूप में तीन विभाग किये जा सकते है : पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, पूर्वोद्धत कर्मशास्त्र और प्राकरणिक कर्मशास्त्र ।' जैन परम्पराभिमत चौदह पूर्वो में से आठवा पूर्व जिसे 'कर्मप्रवाद' कहते हैं, कर्मविषयक ही था। इसके अतिरिक्त द्वितीय पूर्व के एक विभाग का नाम 'कर्मप्राभृत' एवं पञ्चम पूर्व के एक विभाग का नाम 'कषायप्राभृत' था। इन दोनों में भी कर्मविषयक वर्णन था। इस समय श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उक्त पूर्वात्मक कर्मशास्त्र अपने असली रूप में विद्यमान नहीं है। पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र साक्षात् पूर्वसाहित्य से उद्धृत किया गया है, ऐसा उल्लेख श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के ग्रंथों में पाया जाता है। यह साहित्य दोनों सम्प्रदायों में आज भी उपलब्ध है। सम्प्रदायभेद के कारण इसके नामों में विभिन्नता पाई जाती है। दिगम्बर सम्प्रदाय में महाकर्मप्रकृतिप्राभृत ( षष्ट्खण्डागम) और कषायप्राभत ये दो ग्रन्थ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार कर्मप्रकृति, शतक, पञ्चसंग्रह और सप्ततिका ये चार ग्रन्थ पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र के अन्तर्गत हैं। प्राकरणिक कर्मशास्त्र में कर्मविषयक अनेक छोटे-बड़े १. देखिये-कर्मग्रन्थ प्रथम भाग (पं० सुखलालजीकृत हिन्दी अनुवाद ),
प्रस्तावना, पृ०१५-१६.
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