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________________ कषायप्राभृत की व्याख्याएँ १०५ कषायप्राभृत की गाथासंख्या के विषय में उपर्युक्त दो प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए जयधवलाकार ने द्वितीय प्रकार की मान्यता का समर्थन किया है । इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि कुछ व्याख्यानाचार्य कहते हैं कि २३३ गाथाओं में से १८० गाथाओं को छोड़कर सम्बन्ध, अद्धापरिमाण और संक्रमण का निर्देश करने वाली शेष ५३ गाथाएँ आचार्य नागहस्ती ने रची हैं। अतएव 'गाहासदे असीदे' ऐसा कह कर नागहस्ती ने १८० गाथाओं का उल्लेख किया है । उनका यह कथन ठीक नहीं । सम्बन्ध, अद्धापरिमाण और संक्रमण का निर्देश करने वाली गाथाओं को छोड़कर केवल १८० गाथाएँ गुणधर भट्टारककृत मानने पर उनकी अज्ञता का प्रसंग उपस्थित होता है । अतः यह मानना चाहिए कि कषायप्राभृत की सब गाथाएँ अर्थात् २३३ गाथाएँ गुणधर भट्टारक की बनाई हुई हैं ।' जयघवलाकार का यह हेतु उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । केवलज्ञान व केवलदर्शन -- जयधवला में एक स्थान पर केवलज्ञान और केवलदर्शन के यौगपद्य की सिद्धि के प्रसङ्ग से सिद्धसेनकृत सन्मतितर्क की अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई हैं तथा यह बताया गया है कि अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है तथा बहिरंग पदार्थों को विषय करने वाला प्रकाश केवलज्ञान है । इन दोनों उपयोगों की युगपत् प्रवृत्ति विरुद्ध नहीं है क्योंकि उपयोगों की क्रमिक प्रवृत्ति कर्म का कार्य है । कर्म का अभाव हो जाने पर उपयोगों को क्रमिकता का भी अभाव हो जाता है । अतः निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् प्रवृत्त होते हैं, क्रमशः नहीं । ३ बप्पदेवाचार्यलिखित उच्चारणा-- जयधवलाकार वीरसेन ने एक स्थान पर बप्पदेवाचार्यलिखित उच्चारणावृत्ति का उल्लेख किया है एवं उच्चारणाचार्यलिखित उच्चारणावृत्ति से उसका मतभेद बताया है । यह उल्लेख इस प्रकार है : अनुदिश से लेकर अपराजित तक के देवों के अल्पतर विभक्तिस्थान का अन्तरकाल यहाँ उच्चारणा में चौबीस दिन-रात कहा है जबकि बप्पदेवाचार्यलिखित उच्चारणा में वर्षपृथक्त्व बताया है । इसलिए इन दोनों उच्चारणाओं का अर्थ समझ कर अन्तरकाल का कथन करना चाहिये । हमारे अभिप्राय से वर्षपृथक्त्व का अन्तरकाल ठीक है । यहाँ बप्पदेवाचार्यलिखित उच्चारणा से तात्पर्य उनकी कषायप्राभृत ९. वही, पृ० १८३. २. वही, पृ० ३५१ - ३६०. ३. वही, पृ० ३५६-३५७. ४. अणुद्दिसादि अवराइयदंताणं अप्पदरस्स अंतरं एत्थ उच्चारणाए चउवीस अहोरत्तमेत्तमिदि भणिदं । बप्पदेवाइरियलिहिद उच्चारणाएं वासपुघत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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