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कषायप्रामृत की व्याख्याएँ
१०३ में निष्क्रमण और प्रवेश की अपेक्षा से इनका काल एक समय भी होता है।' सामान्यतया मान का जघन्य काल सबसे कम है। क्रोध का जघन्य काल मान के जघन्य काल से विशेष अधिक है । माया का जघन्य काल क्रोध के जघन्य काल से विशेष अधिक है। लोभ का जघन्य काल माया के जघन्य काल से विशेष अधिक है । मान का उत्कृष्ट काल लोभ के जघन्य काल से संख्येय गुणित है। क्रोध का उत्कृष्ट काल मान के उत्कृष्ट काल से विशेष अधिक है, इत्यादि ।२ चतुर्थ गाथा की विभाषा में आचार्य ने दो प्रकार के उपदेशों का अनुसरण किया है : प्रवाहमान उपदेश और अप्रवाह्यमान उपदेश ।'
चतुःस्थान-अर्थाधिकार-चतुःस्थान नामक अर्थाधिकार की चूणि के प्रारम्भ में एकैकनिक्षेप और स्थाननिक्षेपपूर्वक 'चतुःस्थान' पद की विभाषा की गई है। तदनन्तर गाथाओं का व्याख्यान किया गया है।"
इसी प्रकार शेष अर्थाधिकारों का भी चूर्णिकार ने कहीं संक्षेप में तो कहीं निस्तारपूर्वक व्याख्यान किया है । बीरसेन-जिनसेनकृत जयधवला :
जयधवला टीका कषायप्राभृत मूल तथा उसकी चूणि दोनों पर है। जयधवला के अन्त में उपलब्ध प्रशस्ति में उसके रचयिता, रचनाकाल आदि के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । प्रशस्ति में स्पष्ट उल्लेख है कि ग्रन्थ का पूर्वार्ध गुरु वीरसेन ने रचा तथा उत्तरार्ध शिष्य जिनसेन ने। यहाँ पूर्वार्ध से तात्पर्य पहले के हिस्से से है और उत्तरार्घ से बाद के हिस्से से । श्रुतावतार में आचार्य इन्द्र नन्दि ने स्पष्ट लिखा है कि कषायप्राभूत की चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिख कर वीरसेन स्वामी स्वर्गवासी हुए । तत्पश्चात् उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन ) ने चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका और लिख कर इस ग्रन्थ को समाप्त किया। इस प्रकार प्रस्तुत टीका जयधवला साठ हजार श्लोकप्रमाण बृहत्काय ग्रन्थ है। यह भी धवला के ही समान विविध विषयों से परिपूर्ण एक महत्त्वपूर्ण कृति है। आचार्य ने इसका नाम भी ग्रन्थ के गुणानुरूप ही धवला के साथ जय विशेषण लगाकर
१. वही, पृ० ५६०-५६१. ३. वही, पृ० ५८०-५८१. ५. वही, पृ० ६०८-६१०.
२. वही, पृ० ५६१-५६२. ४. वही, पृ० ६०६-६०८.
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