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________________ ९० जेन साहित्य का बृहद् इतिहास : अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में भी एतद्विषयक कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। कषायप्राभृत के अर्थाधिकार : कषायप्राभूतकार ने स्वयमेव दो गाथाओं में अपने ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों अर्थात् अर्थाधिकारों का निर्देश किया है । ये गाथाएँ इस प्रकार हैं : (१) पेज्ज-दोसविहत्ती टिदि-अणुभागे च बंधगे चेय । वेदग-उवजोगे वि य चउट्ठाण-वियंजणे चेय ॥ १३ ॥ (२) सम्मत्त-देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण-चरित्तमोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो ।। १४ ।। इन गाथाओं की व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और जयधवलाकार ने भिन्न-भिन्न रूप से की है। यद्यपि ये दोनों एकमत है कि कषायप्राभूत के १५ अर्थाधिकार हैं तथापि उनकी गणना में एकरूपता नहीं है। चूणिसूत्रकार ने अर्थाधिकार के निम्नोक्त १५ भेद गिनाये हैं : १. पेज्जदोस-प्रेयोद्वेष, २. ठिदि-अणु-भागविहत्ति-स्थिति-अनुभाग. विभक्ति, ३. बंधग अथवा बंध-बन्धक या बन्ध, ४. संकम-संक्रम, ५. वेदम अथवा उदअ-वेदक या उदय, ६. उदीरणा, ७. उवजोग- उपयोग, ८. चउट्ठाण-चतुःस्थान, ९. वंजण-व्यञ्जन, १०. सम्मत अथवा दसणमोहणीयउवसामणा-सम्यक्त्व या दर्शनमोहनीय की उपशामना, ११. दंसणमोहणीयक्खवणा-दर्शनमोहनीय की क्षपणा, १२. देसावरदि-देशविरति, १३. संजमउवसामणा अथवा चरित्तमोहणीय-उवसामणा-संयमविषयक उपशामना या चारित्रमोहनीय की उपशामना, १४. संजमक्खवणा अथवा चरित्तमोहणीयक्खवणा-संयमविषयक क्षपणा या चारित्रमोहनीय की क्षपणा, १५. अद्धापरिमाणणिद्देस-अद्धापरिमाणनिर्देश ।' जयधवलाकार ने जिन पन्द्रह अर्थाधिकारों का उल्लेख किया है वे ये हैं : १. प्रेयोद्वेष, २. प्रकृतिविभक्ति, ३. स्थितिविभक्ति, ४. अनुभागविभक्ति, ५. प्रदेशविभक्ति-क्षीणाक्षीणप्रदेश-स्थित्यन्तिकप्रदेश, ६. बन्धक, ७. वेदक, ८. उप १. कसायपाहुड, भा० १, पृ० १८४-१९२. २. वही, पृ० १९२-१९३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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