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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत-धवलाकार ने एक स्थान पर यह बताया है कि मैंने यह प्ररूपणा सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुसार की है, महाबन्ध के अनुसार नहीं। उन्होंने चार प्रकार के बन्धन-उपक्रम की चर्चा करते हुए कहा है : एत्थ एदेसि चदुण्णमुवक्कमाणं जहा संतकम्मपयडिपाहुडे परूविदं तहा परूवेयव्वं । जहा महाबंधे परूविदं तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबंधम्मि चेव वावारादो । अर्थात इन चार उपक्रमों को प्ररूपणा जैसे सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत में की गई है वैसे ही यहाँ भी करना चाहिए। जैसी महाबन्ध में प्ररूपणा की गई है वैसी यहाँ क्यों नहीं की जाती ? नहीं, क्योंकि उसका व्यापार प्रथम समय के बन्ध में ही है।' सत्कर्मपंजिकाकार ने निबन्धनादि अठारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करने वाले धवला टोका के अन्तिम विभाग को सत्कर्म की संज्ञा दी है। उपर्युक्त सत्कर्मप्रकृतिप्राभृत अथवा सत्कर्मप्राभृत इस सत्कर्म से भिन्न एक प्राचीन सैद्धान्तिक ग्रन्थ है जो महाकर्मप्रकृतिप्राभूत एवं कषायप्राभूत की ही कोटि का है तथा जिसका उल्लेख स्वयं धवलाकार ने इसी रूप में किया है। १. वही, पृ० ४३. सत्कर्मप्राभृत का उल्लेख अन्यत्र भी हुआ है । देखिए पुस्तक ११, पृ० २१; पुस्तक ९, पृ० ३१८; पुस्तक १, पृ० २१७, २२१. २. पुस्तक १५ के अन्त में परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित एक लघुकाय प्राकृत टीका। ३. पुणो तेहिंतो सेसट्ठारसाणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुत्थयेण पंजियसरूवेण भणिस्सामो। -पुस्तक १५, परिशिष्ट, पृ० १. ४. एसो संतकम्भपाहुडउवएसो । कसायपाहुडउवएसो पुण"" "" ""। -पुस्तक १, पृ० २१७. आइरियकहियाणं संतकम्मकसायपाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि. .... ."। -वही, पृ० २२१. संतकम्मप्पयडिपाहडं मोत्तण.... .... .... .... ....। -पुस्तक ९, पृ० ३१८. संतकम्मपाहुडे पुण णिगोदेसु उप्पाइदो .........। -पुस्तक ११, पृ० २१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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