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कर्मप्राभूत की व्याख्याएँ अतः परमार्थतः इनका अस्तित्व ही नहीं है तथा वैश्य और ब्राह्मण साघओं में भी उच्च गोत्र का उदय देखा जाता है। सम्पन्न जनों से होने वाली जीवोत्पत्ति में भी उसका व्यापार नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर म्लेच्छराज से उत्पन्न होने वाले बालक के भी उच्च गोत्र के उदय का प्रसंग उपस्थित होता है। अणुव्रतियों से होने वाली जीवोत्पत्ति में भी उसका व्यापार नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर औपपादिक देवों में उच्च गोत्र के उदय का अभाव उपस्थित होता है तथा नाभिपुत्र को नीच गोत्र की प्राप्ति होती है। इसलिए उच्च गोत्र व्यर्थ है। अतएव उसमें कर्मत्व भी घटित नहीं होता। उसका अभाव होने पर नीच गोत्र भी नहीं रहता क्योंकि ये दोनों परस्पर अविनाभावी हैं। अतः गोत्र कर्म का अभाव है।'
इसका समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं कि ऐसा मानना ठीक नहीं क्योंकि जिनवचन असत्य नहीं होता। दूसरे, केवलज्ञान द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थों का ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होता। इसलिए छद्मस्थों को समझ में न आने के कारण जिनवचन को अप्रमाणत्व प्राप्त नहीं होता। गोत्र कर्म निष्फल नहीं है क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साध्वाचार है, जिन्होंने साध्वाचार वालों के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इस प्रकार के ज्ञान और वचनव्यवहार के निमित्त हैं उन पुरुषों की परम्परा को उच्च गोत्र कहा जाता है । उसमें उत्पन्न होने के कारणभूत कर्म को भी उच्च गोत्र कहते हैं । इसके विपरीत कर्म नीच गोत्र है।
निबन्धनादि अनुयोगद्वार-कर्मप्रकृतिप्राभृत के कृति, वेदना आदि चौबीस अधिकारों अथवा अनुयोगद्वारों में से प्रथम छ: अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा षट्खण्डागम में की गई है। निबन्धनादि शेष अठारह अनुयोगद्वारों का विवेचन यद्यपि मूल षट्खण्डागम में नहीं है तथापि वर्गणा खण्ड के अन्तिम सूत्र को देशामर्शक मान कर धवलाकार वीरसेनाचार्य ने उनका विवेचन अपनी टीका में किया है। जैसा कि घवलाकार ने लिखा है : भूदबलिभडारएण जेणेदं सुत्तं देसामासियभावेण लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसअट्ठारसअणियोगद्दाराणं किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो । अर्थात् भूतबलि भट्टारक ने चूँकि यह सूत्र देशामर्शकरूप से लिखा है अतः इस सूत्र के द्वारा सूचित शेष अठारह अनुयोगद्वारों का कुछ संक्षेप में प्ररूपण करते हैं।
१. वही, पृ० ३८७-३८८. २. वही, पृ० ३८९.
३. पुस्तक १५, पृ० १.
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