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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अनुभाग - छः द्रव्यों की शक्ति का नाम अनुभाग है । वह छः प्रकार का है : जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानुभाग । अशेष द्रव्यों का अवगमज्ञान जीवानुभाग है । ज्वर, कुष्ठ, क्षय आदि का विनाश एवं उत्पादन पुद्गलानुभाग है । यहाँ पुद्गलानुभाग से योनिप्राभृत में कही गई मंत्र-तंत्ररूप शक्तियों का ग्रहण करना चाहिए । जीव और पुद्गल के गमनागमन का हेतुत्व धर्मास्तिकायानुभाग है । उनके अवस्थान का हेतुत्व अधर्मास्तिकायानुभाग है । जीवादि द्रव्यों का आधारत्व आकाशास्तिकायानुभाग है । अन्य द्रव्यों के क्रमिक और अक्रमिक परिणमन का हेतुत्व कालद्रव्यानुभाग है ।"
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विभंगदर्शन- - धवलाकार ने दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियों की चर्चा करते हुए यह शंका उठायी है कि दर्शन के भेदों में विभंगदर्शन की गिनती क्यों नहीं की गई ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि विभंगदर्शन का अवधिदर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है । जैसा कि सिद्ध विनिश्चय में भी कहा गया है : अवधिविभंगयोरवधिदर्शनमेव अर्थात् अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है ।
गोत्र- जो उच्च और नीच का ज्ञान कराता है उसे गोत्र कहते हैं । गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं : उच्च गोत्र और नीच गोत्र । उच्च गोत्र का कहाँ व्यापार है ? राज्यादिरूप सम्पदा की प्राप्ति में उसका व्यापार नहीं है क्योंकि उसकी उत्पत्ति साता वेदनीय कर्म के निमित्त से होती है । पाँच महाव्रत ग्रहण करने की योग्यता भी उच्च गोत्र द्वारा नहीं आती क्योंकि ऐसा मानने पर देवों और अभव्यों में पाँच महाव्रत धारण करने की अयोग्यता होने के कारण उच्च गोत्र के उदय के अभाव का प्रसंग उपस्थित होगा । सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में भी उसका व्यापार नहीं है क्योंकि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से सहकृत सम्यग् - दर्शन से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है तथा ऐसा मानने पर तिर्यञ्चों और नारकियों के भी उच्च गोत्र का उदय मानना पड़ेगा क्योंकि उनमें सम्यग्ज्ञान होता है । आदेयता, यश और सौभाग्य की प्राप्ति में भी उच्च गोत्र का व्यापार नहीं है क्योंकि इनकी उत्पत्ति नाम कर्म के निमित्त से होती है । इक्ष्वाकु कुल आदि की उत्पत्ति में भी उसका व्यापार नहीं है क्योंकि ये सब काल्पनिक हैं
१. वही, पृ० ३४९.
२. वही, पृ० ३५६.
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