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कर्मप्राभृत की व्याख्याएँ
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टीका के अन्त में धवलाकार की निम्नलिखित प्रशस्ति है जिसमें टीका, टीकाकार, टीकाकार के गुरु, प्रगुरु तथा विद्यागुरु आदि के नाम आते हैं : जस्साए सेण मए सिद्धतमिदं हि अहिलहुदं । महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्स ॥ १ ॥ वंदामि उसहसेणं तिउवणजियबंधवं सिवं संतं । णाणकिरणावहासियसयल इयर-तम-पणासियं दिट्टं ॥ २ ॥ अरहंता भववंतो सिद्धा सिद्धा पसिद्धयारिया । साहू साहू य महं पसियंतु भडारया सव्वे ॥ ३ ॥ अज्जज्जणंदिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चंदसेणस्स । तह णत्तुवेण पंचत्युहण्णयंभाणुणा मुणिणा ॥ ४ ॥ सिद्धंत-छंद - जोइस - वायरण- पमाणसत्यणिवणेण भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ॥ ५ ॥ अट्ठत्तीसम्हि सासियविक्कमराय म्ह' एसु संगरमो । पासे सुतेरसीए भावविलग्गे धवलपक्खे ॥ ६ ॥ जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होंते ॥ ७ ॥ चावहि वरणिवत्ते सिंघे सुक्कम्मि मेढिचंदम्मि । कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥ ८ ॥ वोद्दणरायणरंदे णरिदचूडामणिम्हि भुंजंते । सिद्धतगंधमत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता सा
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९॥
१. धवलाकार वीरसेन के समय की चर्चा षट्खण्डागम, पुस्तक १ की प्रस्तावना में विस्तार से की गई है । जिज्ञासु पाठक को यह चर्चा वहाँ देख
लेनी चाहिए।
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