SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यकनियुक्ति करकण्डु, आर्य पुष्पभूति । तदनन्तर अस्वाध्यायिक को नियुक्ति की गई है । अस्वाध्याय दो प्रकार का है : आत्मसमुत्य और परसमुत्थ । परसमुत्थ के पुनः पाँच प्रकार हैं : संयमघातक, औत्पातिक, सदिव्य, व्युद्ग्राहक और शारीर । इन पांचों प्रकारों को उदाहरणपूर्वक समझाया गया है। साथ में बहुत विस्तार से यह भी बताया गया है कि किस काल और किस देश ( स्थान ) में श्रमण को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, स्वाध्याय के लिए कौनसा देश और कौनसा काल उपयुक्त है, गुरु आदि के समक्ष किप प्रकार स्वाध्याय करना चाहिए, आदि। आत्मसमुत्थ अस्वाध्याय एक प्रकार का भी होता है और दो प्रकार का भी । श्रमणों के लिए एक प्रकार का है जो केवल व्रणदशा में होता है । श्रमणियों के लिए व्रण तथा ऋतुकाल में होने के कारण दो प्रकार का है। तत्पश्चात् अस्वा. घ्याय से होने वाले परिणाम की चर्चा की गई है । इस चर्चा के साथ अस्वाध्यायिक की नियुक्ति समाप्त होती है और साय ही साथ चतुर्थ अध्ययन-प्रतिक्रमणाध्ययन की नियुक्ति भी पूर्ण होती है । कायोत्सर्ग: प्रतिक्रमण के बाद कायोत्सर्ग है। यह आवश्यक सूत्र का पाँचवाँ अध्ययन है। कायोत्सर्ग की नियुक्ति करने के पूर्व आचार्य प्रायश्चित्त के भेद बताते हैं । प्रायश्चित्त दस प्रकार का है : १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. ता, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिक । कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग एकार्थवाची हैं। यहाँ कायोत्सर्ग का अर्थ है व्रगचिकित्सा । व्रण दो प्रकार का होता है : तदुद्भव अर्थात् कायोत्थ और आगन्तुक अर्थात् परोत्य। इनमें से आगन्तुक व्रण का शल्योद्धरण किया जाता है, न कि तदुद्भव का।" शल्योद्धरण की विधि शल्य की प्रकृति के अनुरूप होती है। जैसा व्रण होता है वैसी ही उसकी चिकित्सा होती है। यह बाह्य व्रण की चिकित्सा की बात हुई। आभ्यन्तर व्रण को चिकित्सा को भी अलग-अलग विधियाँ हैं। भिक्षाचर्या से उत्पन्न व्रण आलोचना से ठीक हो जाता है । व्रतों के अतिचारों को शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है। किसी अतिचार की शुद्धि कायोत्सर्ग अर्थात् व्युत्सर्ग से होतो है । कोई-कोई अतिचार तपस्या से शुद्ध होते है। इस प्रकार आभ्यन्तर व्रण की चिकित्सा के भी अनेक उपाय १. गा. १३१६-७. ४. गा. १४१३. २. गा. १३१८-१३९७. ३. गा. १३९८. ५. गा. १४१४. ६. गा. १४२०-२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy