SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चाहिए ।' प्रतिक्रमण के निम्नोक्त पर्याय हैं : प्रतिक्रमण, प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा, शुद्धि । इन पर्यायों का अर्थ ठीक तरह समझ में आ जाए, इसके लिए नियुक्तिकार ने प्रत्येक शब्द के लिए अलग-अलग दृष्टांत दिए हैं। इसके बाद शुद्धि की विधि बताते हुए दिशा आदि की ओर संकेत किया है । 3 प्रतिक्रमण देवसिक, रात्रिक, इत्वरिक, यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थक आदि अनेक प्रकार का होता है । पंचमहाव्रत, रात्रिभु क्तिविरति चतुर्याम, भक्तपरिज्ञा आदि यावत्कथिक अर्थात् जीवनभर के लिए हैं । उच्चार, मूत्र, कफ, नासिकामल, आभोग, अनाभोग, सहसाकार आदि क्रियाओं के उपरान्त प्रतिक्रमण आवश्यक है । प्रतिक्रन्तव्य पांच प्रकार का है : मिथ्यात्वप्रतिक्रमण, असंयमप्रतिक्रमण, कषायप्रतिक्रमण, अप्रशस्तयोगप्रतिक्रमण तथा संसारप्रतिक्रमण । संसारप्रतिक्रमण के चार दुर्गतियों के अनुसार चार प्रकार हैं । भावप्रतिक्रमण का अर्थ है तीन करण और तीन योग से मिथ्यात्वादि का सेवन छोड़ना ।" इस विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिए आचार्य ने आगे को कुछ गाथाओं में नागदत्त का उदाहरण भी दिया है । इसके बाद यह बताया है कि प्रतिषिद्ध विषयों का आचरण करने, विहित विषयों का आचरण न करने, जिनोक्त वचनों में श्रद्धा न रखने तथा विपरीत प्ररूपणा करने पर प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए | इसके बाद आलोचना आदि बत्तीस योगों का संग्रह किया गया है । उनके नाम ये हैं : १. आलोचना, २. निरपलाप, ३. आपत्ति में दृढधर्मता, ४ अनिश्रितोपधान, ५. शिक्षा, ६. निष्प्रतिकर्मता, ७. अज्ञावता, ८. अलोभता, ९. तितिक्षा १०. आर्जव, ११. शुचि, १२. सम्यग्दृष्टित्व, १३, समाधि, १४. आचारोपगत्व, १५. विनयोपगत्व, १६. धृतिमति, १७. संवेग, १८. प्रणिधि, १९. सुविधि, २०. संवर, २९. आत्मदोषोपसंहार, २२. सर्व कामविरक्तता, २३. मूलगुणप्रत्याख्यान, २४. उत्तरगुणप्रत्याख्यान, २५. व्युत्सर्ग, २६. अप्रमाद, २७. लवालव, २८. ध्यान, २९. मरणाभीति, ३०. संगपरिज्ञा, ३१. प्रायश्चित्तकरण, ३२. मरणान्ताराधना । इन योगों का अर्थ ठीक तरह से समझाने के लिए विविध व्यक्तियों के उदाहरण भी दिए गए हैं ।" इनमें से प्रकार हैं : महागिरि, स्थूलभद्र, धर्मघोष, सुरेन्द्रदत्त, कुछ के नाम इस वारत्तक, धन्वन्तरी वैद्य, १. गा. १२३७, ४. गा. १२४४-६. ७. गा. १२६९-११७३. Jain Education International २. गा. १२३८. ५. गा. १२४७-८ . ३. गा. ६. गा. ८. गा. १२३९ - १२४३. १२६८. १२७४ - १३१४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy