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________________ प्रास्ताविक ३५ अपूर्ण कार्य को कोट्यार्य ने ( जो कि कोट्याचार्य से भिन्न हैं ) पूर्ण किया। इस दृष्टि से आचार्य जिनभद्र प्राचीनतम आगमिक टीकाकार हैं। भाष्य, चूर्णि और टोका-तीनों प्रकार के व्याख्यात्मक साहित्य में इनका योगदान है। भाष्यकार के रूप में तो इनकी प्रसिद्धि है ही । अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर इनको एक चूणि भी है। टोका के रूप में इनको लिखी हुई विशेषावश्यकभाष्य-स्वोपज्ञवृत्ति है हो । टोकाकारों में हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इनमें हरिभद्र रि प्राचीनतम हैं। कुछ टोकाकारों के नाम अज्ञात भी हैं । ज्ञातनामा टीकाकार ये हैं : जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरि, कोट्याचार्य, कोटयार्य अथवा कोट्टार्य, जिनभट, शीलांकसूरि, गंधहस्ती, वादिवेताल शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, द्रोणसूरि, मलयगिरि, मलधारो हेमचन्द्र, नेमिचन्द्रसूरि अपरनाम देवेन्द्रगणि, श्रीचन्द्रसूरि, श्रोति लकसरि, क्षेमकीर्ति, भवनतुंगसूरि, गुणरत्न, विजयविमल, वानरर्षि, होर विजयसूरि, शान्तिचन्द्रगणि, जिनहंस. हर्षकुल, लक्ष्मीकल्लोलगणि, दानशे वरसरि, विनयहंस, नमिसाधु, ज्ञानसागर, सोमसुन्दर, माणिक्यशेखर, शुभवर्वनगणि, धीरसुन्दर, कुलप्रभ, राजवल्लभ. हितरुचि, अजितदेवसूरि, साधुरंग उपाध्याय, नगर्षिगणि, सुमतिकल्लोल, हर्षनन्दन, मेघराज वाचक, भावसागर, 'पद्मसुन्दरण, कस्तूरचन्द्र, हर्षवल्लभ उपाध्याय, विवेकहंस उपाध्याय, ज्ञान'विमलसूरि, राजचन्द्र, रत्नप्रभसूरि, समरचन्द्रसूरि, पद्मसागर, जीवविजय, 'पुण्यसागर, विनयराजगणि, विजयसेनसूरि, हेमचन्द्रगणि, विशालसुन्दर, सौभाग्यसागर, कीर्तिवल्लभ, कमलसंयम उपाध्याय, तपोरत्न वाचक, गुणशेखर, लक्ष्मीवल्लभ, भावविजय, हर्षनंदनगणि, धर्ममंदिर उपाध्याय, उदयसागर, मुनिचन्द्रसूरि, ज्ञानशीलगणि, ब्रह्मर्षि, अजितचन्द्रसूरि, राजशील, उदयविजय, सुमतिसूरि, समयसुन्दर, शान्तिदेवसरि, सोमविमलसूरि, क्षमारत्न, जयदयाल इत्यादि । इनमें से जिनको जीवनी आदि के विषय में कुछ प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध है उनका परिचय देते हुए उनको टीकाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। इस परिचय में प्रकाशित टोकाओं की प्रधानता रहेगी। जिनभद्रकृतविशेषावश्यकभाष्य-स्वोपज्ञवृत्ति : भाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत प्रस्तुत अपूर्ण वृत्ति कोट्यार्य वादिगणि ने पूर्ण की। जिनभद्र षष्ठ गणधरवाद तक की वृत्ति समाप्त कर दिवंगत हो गए थे । वृत्ति का अवशिष्ट भाग, जैसा कि वृत्ति की उपलब्ध प्रति से स्पष्ट है, कोट्यार्य ने पूर्ण किया। प्रस्तुत वृत्ति अति सरल, स्पष्ट एवं संक्षिप्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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