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________________ ३४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जगप्सित हैं। श्रमणों के लिए आर्यदेश में हो विचरने का विधान करते हुए आचार्य ने आर्यदेश की सीमा इस प्रकार बताई है : पूर्व में मगध, पश्चिम में स्थूणा, उत्तर में कुणाला और दक्षिण में कौशाम्बो। अंतिम उद्देश-बीसवें उद्देश की व्याख्या के अन्त में चूर्णिकार के पूरे नाम-जिनदासगणि महत्तर का उल्लेख किया गया है तथा प्रस्तुत चूर्णि का नाम विशेषनिशाथचूर्णि बताया गया है । प्रस्तुत चुणि का जैन आचारशास्त्र के व्याख्याग्रंथों में एक विशिष्ट स्थान है। इसमें आचार के नियमों के अतिरिक्त प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालने वाली सामग्री को भी प्रचुरता है । अन्य व्याख्याग्रंथों की भांति इसमें भी अनेक कथानक उद्धृत किये गये है। इनमें धूर्ताख्यान, तरंगवती, मलयवती, मगधसेन, आर्य कालक एवं उनकी भगिनी रूपवती तथा उज्जयिनो के राजा गर्दभिल्ल आदि के वृत्तान्त उल्लेखनीय हैं। दशाश्रुतस्कन्धचूणि : यह भूणि नियुक्त्यनुसारी है। व्याख्यान की शैली सरल है । मूल सूत्रपाठ तथा चूर्णिसम्मत पाठ में कहों-कहीं थोड़ा-सा अंतर है। कहीं-कहीं सूत्रों का विपर्यास भी है। बृहत्कल्पचूर्णिः यह चूणि लघुभाष्य का अनुसरण करते हुए है। इसमें पीठिका तथा छः उद्देश हैं । आचार्य ने कहीं-कहीं दार्शनिक चर्चा भी को है । एक जगह वृक्ष शब्द के छः भाषाओं में पर्याय दिये गये हैं । संस्कृत में जो वृक्ष है वही प्राकृत में रुक्ख, मगध देश में ओदण, लाट में कूर, दमिल में चोर और अंध्र में इडाकु नाम से प्रसिद्ध है । इसमें तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्म-प्रकृति, महाकल्प, गोविन्दनियुक्ति आदि का भी उल्लेख है। चूणि के अन्त में चूर्णिकार के नाम आदि का कोई उल्लेख नहीं है । टीकाएँ और टीकाकार : जैन आगमों की संस्कृत व्याख्याओं का भी आगमिक साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है । संस्कृत के प्रभाव की विशेष वृद्धि होते देख जैन आचार्यों ने भी अपने प्राचीनतम साहित्य आगम-ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखना प्रारंभ किया। इन टीकाओं में प्राचीन नियुक्तियों, भाष्यों एवं चूणियों की सामग्री का तो उपयोग हुआ ही, साथ ही साथ टीकाकारों ने नये-नये हेतुओं एवं तर्को द्वारा उस सामग्री को पुष्ट भी किया। आगमिक साहित्य पर प्राचीनतम संस्कृत टीका आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति है। यह वृत्ति आचार्य जिनभद्र अपने जीवनकाल में पूर्ण न कर सके । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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