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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हरिभद्रसूरिकृत टीकाएँ : हरिभद्र का जन्म वीरभूमि मेवाड़ के चित्तौड़ नगर में हुआ था। ये इसी नगर के राजा जितारि के राज-पुरोहित थे। इनके गच्छपति गुरु का नाम जिनभट, दीक्षादाता गुरु का नाम जिनदत्त, धर्मजननी का नाम याकिनी महत्तरा, धर्मकुल का नाम विद्याधरगच्छ एवं सम्प्रदाय का नाम श्वेताम्बर था । इनका समय ईस्वी सन् ७००-७७० अर्थात् वि० सं० ७५७-८२७ है। कहा जाता है कि हरिभद्रसूरि ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। इनके लगभग ७५ ग्रन्थ तो अभी भी उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि आचार्य हरिभद्र एक बहुश्रुत विद्वान् थे। इनकी विद्वत्ता निःसन्देह अद्वितीय थी। इन्होंने नन्दी, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, प्रज्ञापना, आवश्यक, जीवाभिगम और पिण्डनियुक्ति पर टीकाएँ लिखीं। पिण्डनियुक्ति की अपूर्ण टीका वीराचार्य ने पूरी की। नन्दोवृत्ति : यह टीका प्रायः नन्दीचूणि का ही रूपान्तर है। इसमें टीकाकार ने केवलज्ञान और केवलदर्शन का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए उनके योगपद्य के समर्थन के लिए सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व के समर्थन के लिए जिनभद्र आदि का एवं अभेद के समर्थन के लिए वृद्धाचार्यों का नामोल्लेख किया है । अत्रोल्लिखित सिद्धसेन सिद्धसेन-दिवाकर से भिन्न कोई अन्य ही आचार्य हो सकते हैं । उनका यह मत दिगम्बरसंमत है क्योकि दिगम्बर आचार्य केवलज्ञान और केवलदर्शन को युगपद् मानते हैं। सन्मतितर्क के कर्ता सिद्धसेन-दिवाकर तो अभेदवाद के समर्थक अथवा यों कहिए कि प्रवर्तक हैं। टीकाकार ने संभवतः वृद्धाचार्य के रूप में उन्हीं का निर्देश किया है । क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी कहा गया है । प्रस्तुत टीका का ग्रंथमान १३३६ श्लोकप्रमाण है। अनुयोगद्वारटीका : / यह टीका अनुयोगद्वारचूणि की ही शैली पर है। इसका निर्माण नन्दी टीका के बाद हुआ है, जैसा कि स्वयं टीकाकार ने प्रस्तुत टीका के प्रारंभ में निर्देश किया है। इसमें आवश्यकविवरण और नन्दी-विशेषविवरण का भी उल्लेख है। दशवैकालिकवृत्तिः __ यह वृत्ति दशवकालिकनियुक्ति का अनुसरण करते हुए लिखी गई है। इसमें अनेक प्राकृत कथानक एवं संस्कृत तथा प्राकृत उद्धरण हैं। कहीं-कहीं दार्शनिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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